SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ अष्टपाहुड ___ अर्थ - आत्मस्वभाव से अन्य सचित्त जो स्त्री, पुत्रादिक, जीवसहित वस्तु तथा अचित्त, धन, धान्य, हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु और मिश्र आभूषणादि सहित मनुष्य तथा कुटुम्ब सहित गृहादिक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जिसने जीवादिक पदार्थों का स्वरूप नहीं जाना उसको समझाने के लिए सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवान ने कहा है अथवा ‘अवितत्थं' अर्थात् सत्यार्थ कहा है। भावार्थ - अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य चेतन अचेतन मिश्र वस्तु हैं, वे सब ही परद्रव्य हैं, इसप्रकार अज्ञानी को समझाने के लिए सर्वज्ञदेव ने कहा है।।१७।। आगे कहते हैं कि आत्मस्वभाव स्वद्रव्य कहा वह इसप्रकार है - दुट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।।१८।। दुष्टादुष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम्। शुद्धं जिनै: भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ।।१८।। अर्थ – संसार के दुःख देनेवाले ज्ञानावरणादिक दुष्ट अष्टकर्मों से रहित और जिसको किसी की उपमा नहीं ऐसा अनुपम, जिसका ज्ञान ही शरीर है और जिसका नाश नहीं है ऐसा अविनाशी नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकाररहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान् सर्वज्ञ ने कहा है वह ही स्वद्रव्य है। भावार्थ - ज्ञानानन्दमय, अमूर्तिक, ज्ञानमूर्ति अपनी आत्मा है वही एक स्वद्रव्य है अन्य सब चेतन, अचेतन, मिश्र परद्रव्य हैं ।।१८।। आगे कहते हैं कि जो ऐसे निजद्रव्य का ध्यान करते हैं, वे निर्वाण को पाते हैं - जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरित्ता । ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्वाणं ।।१९।। ये ध्यायंति स्वद्रव्यं परद्रव्य पराङ्मुखास्तु सुचरित्राः। ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्ना: लभते निर्वाणम् ।।१९।। अर्थ - जो मुनि परद्रव्य से पराङ्मुख होकर स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्य का ध्यान करते हैं वे दुष्टाष्ट कर्मों से रहित जो ज्ञानविग्रह शुद्ध है। वह नित्य अनुपम आतमा स्वद्रव्य जिनवर ने कहा ।।१८।। पर द्रव्य से हो पराङ्मख निज द्रव्य को जो ध्यावते। जिनमार्ग में संलग्न वे निर्वाणपद को प्राप्त हों ।।१९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy