SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षपाहुड २४७ से बंधता है ।।१५।। आगे कहते हैं कि परद्रव्य ही से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य ही से सुगति होती है - परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई होइ। इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।।१६।। परद्रव्यात् दुर्गति: स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगति: भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन् ।।१६।। अर्थ - परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य से सुगति होती है - यह स्पष्ट (प्रगट) जानो, इसलिए हे भव्यजीवों ! तुम इसप्रकार जानकर स्वद्रव्य में रति करो और अन्य जो परद्रव्य उनसे विरति करो। भावार्थ - लोक में भी यह रीति है कि अपने द्रव्य से रति करके भोगता है वह तो सुख पाता है, उस पर कुछ आपत्ति नहीं आती है और परद्रव्य से प्रीति करके चाहे जैसे भोगता है उसको दुःख होता है, आपत्ति उठानी पड़ती है। इसलिए आचार्य ने संक्षेप में उपदेश दिया है कि अपने आत्मस्वभाव में रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादिक भी इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है और परद्रव्य से प्रीति मत करो इससे दुर्गति होती है, संसार में भ्रमण होता है। यहाँ कोई कहता है कि स्वद्रव्य में लीन होने से मोक्ष होता है और सुगति दुर्गति तो परद्रव्य की प्रीति से होती है ? उसको कहते हैं कि यह सत्य है, परन्तु यहाँ इस आशय से कहा है कि परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन होवे तब विशुद्धता बहुत होती है, उस विशुद्धता के निमित्त से शुभकर्म भी बंधते हैं और जब अत्यंत विशुद्धता होती है तब कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है इसलिए सुगति दुर्गति का होना कहा वह युक्त है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१६।। आगे शिष्य पूछता है कि परद्रव्य कैसा है ? उसका उत्तर आचार्य कहते हैं - आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि। तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं ।।१७।। आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत्पस्व्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभिः ।।१७।। जो आतमा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं। उन सर्वद्रव्यों को अरे ! परद्रव्य जिनवर ने कहा ।।१७।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy