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________________ मोक्षपाहुड २४३ पदार्थों में स्फुरित (तत्पर) मनवाला है तथा इन्द्रियों के द्वार से अपने स्वरूप से च्युत है और इन्द्रियों को ही आत्मा जानता है ऐसा होता हुआ अपने देह को ही आत्मा जानता है निश्चय करता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। भावार्थ - ऐसा बहिरात्मा का भाव है, उसको छोड़ना ।।८।। आगे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता है - णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण। अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ।।९।। निजदेहसदृशं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ।।९।। अर्थ - मिथ्यादृष्टि पुरुष अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर के यह देह अचेतन है तो भी मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके पर की आत्मा ध्याता है अर्थात् समझता है। भावार्थ - बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकर्म के उदय से (उदय के वश होने से) मिथ्याभाव है, इसलिए वह अपनी देह को आत्मा जानता है वैसे ही पर की देह अचेतन है तो भी उसको पर की आत्मा मानता है (अर्थात् पर को भी देहात्मबुद्धि से मान रहा है और ऐसे मिथ्याभाव सहित ध्यान करता है) और उसमें बड़ा यत्न करता है इसलिए ऐसे भाव को छोड़ना - यह तात्पर्य है ।।९।। आगे कहते हैं कि ऐसी ही मान्यता से पर मनुष्यादि में मोह की प्रवृत्ति होती है - सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ।।१०।। स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् । सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धते मोहः ।।१०।। * – 'सरित्छ' पाठान्तर 'सरिसं' निज देहसम परदेह को भी जीव जानें मूढजन । उन्हें चेतन जान सेवें यद्यपि वे अचेतन ।।९।। निजदेह को निज-आतमा परदेह को पर-आतमा। ही जानकर ये मूढ़ सुत-दारादि में मोहित रहें ।।१०।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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