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________________ २४२ अष्टपाहुड स्वरूप विशेषरूप से शुद्ध है, ज्ञान में ज्ञेयों के आकार झलकते हैं तो भी उनरूप नहीं होता है और न उनसे राग-द्वेष है, परमेष्ठी है - परमपद में स्थित है, परमजिन है, सब कर्मों को जीत लिये हैं, शिवंकर है-भव्यजीवों को परम मंगल तथा मोक्ष को करता है, शाश्वता (अविनाशी) है, सिद्ध है, अपने स्वरूप की सिद्धि करके निर्वाणपद को प्राप्त हुआ है। भावार्थ - ऐसा परमात्मा है, जो इसप्रकार से परमात्मा का ध्यान करता है वह ऐसा ही हो जाता है।।६।। आगे भी यही उपदेश करते हैं - आरुहवि अन्तरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा उवइ8 जिणवरिंदेहिं ।।७।। आरुह्य अंतरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः ।।७।। अर्थ – बहिरात्मपन को मन वचन काय से छोड़कर अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमात्मा का ध्यान करो, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर परमदेव ने उपदेश दिया है। __भावार्थ - परमात्मा के ध्यान करने का उपदेश प्रधान करके कहा है इसी से मोक्ष पाते हैं ।।७।। आगे बहिरात्मा की प्रवृत्ति कहते हैं - बहिरत्थे फुरियमाणो इंदियदारेण 'णियसरूवचुओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ।।८।। बहिरर्थे स्फुरितमना: इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः। निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ।।८।। अर्थ - मूढदृष्टि अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टि है, वह बाह्य पदार्थ धन, धान्य, कुटुम्ब आदि इष्ट १. पाठान्तर – 'चुओ' के स्थान पर 'चओ' । जिनदेव का उपदेश यह बहिरातमापन त्यागकर। अरे ! अन्तर आतमा परमात्मा का ध्यान धर ।।७।। निजरूप से च्युत बाह्य में स्फुरितबुद्धि जीव यह । देहादि में अपनत्व कर बहिरात्मपन धारण करे ।।८।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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