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________________ २२८ अष्टपाहुड जैसे अन्मयती कई अपना इष्ट कुछ मान करके उसको परमेष्ठी कहते हैं; वैसे नहीं है। 'सर्वज्ञ' है अर्थात् सब लोकालोक को जानता है, अन्य कितने ही किसी एक प्रकरण संबंधी सब बात जानता है उसको भी सर्वज्ञ कहते हैं वैसा नहीं है। 'विष्णु' है अर्थात् जिसका ज्ञान सब ज्ञेयों में व्यापक है-अन्यमती वेदांती आदि कहते हैं कि सब पदार्थों में आप है तो ऐसा नहीं है। 'चतुर्मुख' कहने से केवली अरहंत के समवसरण में चार मुख चारों दिशाओं में दीखते हैं, ऐसा अतिशय है, इसलिए चतुर्मुख कहते हैं - अन्यमती ब्रह्मा को चतर्मुख कहते हैं - ऐसा ब्रह्मा कोई नहीं है। 'बुद्ध' है अर्थात् सबका ज्ञाता है-बौद्धमती क्षणिक को बुद्ध कहते हैं वैसा नहीं है। 'आत्मा' है अपने स्वभाव में ही निरन्तर प्रवर्तता है-अन्यमती वेदान्ती सबमें प्रवर्तते हुए आत्मा को मानते हैं वैसा नहीं है। ‘परमात्मा' है अर्थात् आत्मा का पूर्णरूप 'अनन्तचतुष्टय' उसके प्रगट हो गये हैं, इसलिए परमात्मा है। कर्म जो आत्मा के स्वभाव के घातक घातियाकर्मों से रहित हो गये हैं, इसलिए कर्म विमुक्त' है अथवा कुछ करने योग्य काम न रहा इसलिए भी कर्मविमुक्त है। सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं, वैसे नहीं है। ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं। अन्यमती अपने इष्ट का नाम एक ही कहते हैं, उनका सर्वथा एकान्त के अभिप्राय के द्वारा अर्थ बिगडता है, इसलिए यथार्थ नहीं है। अरहन्त के ये नाम नयविवक्षा से सत्यार्थ है, ऐसा जानो।।१५१।। आगे आचार्य कहते हैं कि ऐसा देव मुझे उत्तम बोधि देवे - इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवजिओ सयलो। तिहुवणभवणपदीवो देउ ममं उत्तमं बोहिं ।।१५२।। इति घातिकर्ममुक्त: अष्टादशदोषवर्जित: सकलः। त्रिभवनभवनप्रदीपः ददात मां उत्तमां बोधिम ।।१५२।। अर्थ – इसप्रकार घातिया कर्मों से रहित, क्षुधा-तृषा आदि पूर्वोक्त अठारह दोषों से रहित, सकल (शरीर सहित) और तीन भुवनरूपी भवन को प्रकाशित करने के लिए प्रकृष्टदीपक तुल्य देव है, वह मुझे उत्तम बोधि (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र) की प्राप्ति देवे, इसप्रकार आचार्य ने प्रार्थना जिनवर चरण में नमें जो नर परम भक्तिभाव से। वर भाव से वे उखाड़े भवबेलि को जड़मूल से ।।१५३।। जल में रहें पर कमल पत्ते लिप्त होते हैं नहीं। सत्पुरुष विषय-कषाय में त्यों लिप्त होते हैं नहीं ।।१५४।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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