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________________ अष्टपाहुड मित्र आदि से मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते हैं, इसलिए हे धीर मुनि ! तू इसप्रकार जानकर अभ्यन्तर की वासना को छोड़। भावार्थ - जो बाह्य बांधव, कुटुम्ब तथा मित्र इनको छोड़कर निर्ग्रन्थ हुआ और अभ्यन्तर का ममत्व भावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट में रागद्वेष वासना न छूटी तो उसको निर्ग्रन्थ नहीं कहते हैं। अभ्यन्तर वासना छूटने पर निर्ग्रन्थ होता है, इसलिए यह उपदेश है कि अभ्यन्तर मिथ्यात्व कषाय छोड़कर भावमुनि बनना चाहिए ।।४३।। आगे कहते हैं कि जो पहिले मुनि हुए उन्होंने भावशुद्धि बिना सिद्धि नहीं पाई है। उनका उदाहरणमात्र नाम कहते हैं। प्रथम ही बाहुबली का उदाहरण कहते हैं - देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर!। अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ।।४४।। देहादित्यक्तसंग: मानकषायेन कलुषित: धीर!। आतापनेन जात: बाहुबली कियन्तं कालम् ।।४४।। अर्थ – देखो, बाहुबली श्री ऋषभदेव का पुत्र देहादिक परिग्रह को छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनि बन गया तो भी मानकषाय से कलुष परिणामरूप होकर कुछ समय तक आतापन योग धारणकर स्थित हो गया, फिर भी सिद्धि नहीं पाई। भावार्थ - बाहुबली से भरतचक्रवर्ती ने विरोध कर युद्ध आरंभ किया, भरत का अपमान हुआ। उसके बाद बाहुबली विरक्त होकर निर्ग्रन्थ मुनि बन गए, परन्तु कुछ मानकषाय की कलुषता रही कि भरत की भूमि पर मैं कैसे रहूँ? तब कायोत्सर्ग योग से एक वर्ष तक खड़े रहे, परन्तु केवलज्ञान नहीं पाया। पीछे कलुषता मिटी तब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इसलिए कहते हैं कि ऐसे महान पुरुष बड़ी शक्ति के धारक ने भी भावशुद्धि के बिना सिद्धि नहीं पाई तब अन्य की क्या बात ? इसलिए भावों को शुद्ध करना चाहिए, यह उपदेश है ।।४४।। आगे मधुपिंगल मुनि का उदाहरण कहते हैं - १. 'कित्तियं' पाठान्तर 'कित्तियं' बाहुबली ने मान बस घरवार ही सब छोड़कर। तप तपा बारह मास तक ना प्राप्ति केवलज्ञान की।।४४।। तज भोजनादि प्रवृत्तियाँ मुनिपिंगला रे भावविन । अरे मात्र निदान से पाया नहीं श्रमणत्व को।।४५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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