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________________ १४६ अष्टपाहुड (विशेषार्थ – गाथामें आये हुए 'निगोद वासम्मि' शब्द की संस्कृत छाया में 'निगोत वासे' है। निगोद शब्द एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवों के साधारण भेद में रूढ़ है, जबकि निगोत शब्द पाँचों इन्द्रियों के सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के लिए प्रयुक्त होता है। अतः यहाँ जो ६६३३६ बार मरण की संख्या है, वह पाँचों इन्द्रियों को सम्मिलित समझना चाहिए ।।२८।।) इस ही अन्तर्मुहूर्त के जन्म-मरण में क्षुद्रभव का विशेष कहते हैं - वियलिंदए असीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह। पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमुहुत्तस्स ।।२९।। विकलेंद्रियाणामशीतिं षष्टिं चत्वारिंशतमेव जानीहि। पंचेन्द्रियाणां चतुर्विंशतिं क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्तस्य ।।२९।। अर्थ – इस अन्तर्मुहूर्त के भवों में दो इन्द्रिय के क्षुद्रभव अस्सी, तेइन्द्रिय के साठ, चौइन्द्रिय के चालीस और पंचेन्द्रिय के चौबीस, इसप्रकार हे आत्मन् ! तू क्षुद्रभव जान । भावार्थ - क्षुद्रभव अन्य शास्त्रों में इसप्रकार गिने हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु और साधारण निगोद के सूक्ष्म बादर से दस और सप्रतिष्ठित वनस्पति एक, इसप्रकार ग्यारह स्थानों के भव तो एक-एक के छह हजार बार. उसके छयासठ हजार एक सौ बत्तीस हए और इस गाथा में कहे वे भव दो इन्द्रिय आदि के दो सौ चार, ऐसे ६६३३६ एक अन्तर्मुहूर्त में क्षुद्रभव कहे है ।।२९।। आगे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की प्राप्ति बिना भ्रमण किया, इसलिए अब रत्नत्रय धारण कर - रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओ सि दीहसंसारे । इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह ।।३०।। रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोऽपि दीर्घसंसारे । इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ।।३०।। विकलत्रयों के असी एवं साठ अर चालीस भव। चौबीस भव पंचेन्द्रियों अन्तरमुहूरत छुद्रभव ।।२९।। रतन त्रय के बिना होता रहा है यह परिणमन।। तुम रतन त्रय धारण करो बस यही है जिनवर कथन ।।३०।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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