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________________ भावपाहुड १३३ भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः।। बाह्यत्याग: विफल: अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य ।।३।। अर्थ – बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है, परन्तु अभ्यन्तर परिग्रह रागादिक हैं, उनसे युक्त के बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। भावार्थ - अन्तरंग भाव बिना बाह्य त्यागादिक की प्रवृत्ति निष्फल है, यह प्रसिद्ध है ।।३।। आगे कहते हैं कि करोड़ों भवों में तप करे तो भी भाव बिना सिद्धि नहीं है - भावरहिओण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ। जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ।।४।। भावरहित: न सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी। जन्मान्तराणि बहुश: लंबितहस्त: गलितवस्त्रः ।।४।। अर्थ – यदि कई जन्मान्तरों तक कोडाकोडि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर, वस्त्रादिक का त्याग करके तपश्चरण करे तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है। भावार्थ - भाव में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप विभाव रहित सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रस्वरूप स्वभाव में प्रवृत्ति न हो तो कोड़ाकोड़ि भव तक कायोत्सर्गपूर्वक नग्नमुद्रा धारणकर तपश्चरण करे तो भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है, इसप्रकार भावों में सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप भाव प्रधान हैं और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना ज्ञान-चारित्र मिथ्या कहे हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ।।४।। आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं - परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुञ्चेइ बाहिरे य जई। बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ।।५।। परिणामे अशुद्ध ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि। बाह्यग्रन्थत्यागः भावविहीनस्य किं करोति ।।५।। वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें।।४।। परिणामशुद्धि के बिना यदि परीग्रह सब छोड़ दें। तब भी अरे निज आत्महित का लाभ कुछ होगा नहीं ।।५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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