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________________ अष्टपाहुड जड़ । इनकी अवस्था से अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिणाम को 'भाव' कहते हैं । जीव का स्वभाव-परिणामरूप भाव तो दर्शन - ज्ञान है और पुद्गल कर्म के निमित्त से ज्ञान में मोह-रागद्वेष होना ‘विभावभाव' है। पुद्गल के स्पर्श से स्पर्शान्तर, रस से रसान्तर इत्यादि गुण से गुणान्तर होना ‘स्वभावभाव' है और परमाणु से स्कन्ध होना तथा स्कन्ध से अन्य स्कन्ध होना और जीव के भाव के निमित्त से कर्मरूप होना ये 'विभावभाव' हैं । इसप्रकार इनके परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होते हैं । १३२ पुद्गल तो जड़ है, इसके नैमित्तिकभाव से कुछ सुख-दुःख आदि नहीं है और जीव चेतन है, इसके निमित्त से भाव होते हैं, उनसे सुख-दुख आदि होते हैं अतः जीव को स्वभाव-भावरूप रहने का और नैमित्तिकभावरूप न प्रवर्त्तने का उपदेश है। जीव के पुद्गल कर्म के संयोग हादि द्रव्य का संबंध है, इस बाह्यरूप को 'द्रव्य' कहते हैं और 'भाव' से द्रव्य की प्रवृत्ति होती है, इसप्रकार द्रव्य की प्रवृत्ति होती है । इसप्रकार द्रव्य-भाव का स्वरूप जान कर स्वभाव में प्रव विभाव में न प्रवर्त्ते, उसके परमानन्द सुख होता है; और विभाव रागद्वेषमोहरूप प्रवर्ते, उसके संसारसंबंधी दुःख होता है। द्रव्यरूप पुद्गल का विभाव है, इस संबंधी जीव को दुःख सुख नहीं होता अतः भावी प्रधान है, ऐसा न हो तो केवली भगवान को भी सांसारिक सुख - दुःख की प्राप्ति हो, परन्तु ऐसा नहीं है। इसप्रकार जीव के ज्ञान दर्शन तो स्वभाव है और रागद्वेषमोह ये स्वभाव-विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादिक और स्कन्धादिक स्वभाव-विभाव हैं । उनमें जीव का हित-अहित प्रधान है, पुद्गलद्रव्यसंबंधी प्रधान नहीं है । बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र कुछ करता नहीं है। उपादान के बिना निमित्त यह तो सामान्यरूप से स्वभाव का स्वरूप है और इसी का विशेष सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र तो जीव का स्वभाव-भाव है, इसमें सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है। इसके बिना सब बाह्यक्रिया मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र हैं, ये विभाव हैं और संसार के कारण हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ॥ २ ॥ आगे कहते हैं कि बाह्यद्रव्य निमित्तमात्र है 'इसका अभाव' जीव के भाव की विशुद्धता का निमित्त जान बाह्यद्रव्य का त्याग करते हैं - भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥३॥ अर भावशुद्धि के लिए बस परीग्रह का त्याग हो । रागादि अन्तर में रहें तो विफल समझो त्याग सब ॥ ३ ॥
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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