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________________ १०१ बोधपाहुड सो देवो जो अत्थं धम्मं कामांशुदेइ णाणं च। सो दइ जस्स अस्थि हु अत्थो धम्मो य पवजा ।।२४।। स: देव: य: अर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च। सः ददाति यस्य अस्ति तु अर्थ : धर्म : च प्र व , उ य । ।। २ ४ । । अर्थ – 'देव' उसको कहते हैं जो अर्थ अर्थात् धन, धर्म, काम अर्थात् इच्छा का विषय - ऐसा भोग और मोक्ष का कारण ज्ञान इन चारों को देवे । यहाँ न्याय ऐसा है कि जो वस्तु जिसके पास हो सो देवे और जिसके पास जो वस्तु न हो सो कैसे देवे ? इस न्याय से अर्थ, धर्म, स्वर्गादिक के भोग और मोक्षसुख का कारण प्रव्रज्या अर्थात् दीक्षा जिसके हो उसको 'देव' जानना ।।२४।। आगे धर्मादिक का स्वरूप कहते हैं, जिनके जानने से देवादि का स्वरूप जाना जाता है - धम्मो दयाविसुद्धो पव्वजा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ।।२५।। धर्मः दयाविशुद्धः प्रव्रज्या सर्वसंगपरित्यक्ता। देव: व्यपगतमोहः उदयकरः भव्यजीवानाम् ।।२५।। अर्थ - जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है, जो सर्व परिग्रह से रहित है वह प्रव्रज्या है, जिसका मोह नष्ट हो गया है वह देव है, वह भव्य जीवों के उदय को करनेवाला है। ___ भावार्थ - लोक में यह प्रसिद्ध है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुष के प्रयोजन हैं। उनके लिए पुरुष किसी को वंदना करता है, पूजा करता है और यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु हो वह दूसरे को देवे, न हो तो कहाँ से लावे ? इसलिए ये चार पुरुषार्थ जिनदेव के पाये जाते हैं। धर्म तो उनके दयारूप पाया जाता है, उसको साधकर तीर्थंकर हो गये, तब धन की और संसार के भोगों की प्राप्ति हो गई, लोकपूज्य हो गए और तीर्थंकर के परमपद में दीक्षा लेकर, सब धर्मार्थ कामरु ज्ञान देवे देव जन उसको कहें। जो हो वही दे नीति यह धर्मार्थ कारण प्रव्रज्या ।।२४।। सब संग का परित्याग दीक्षा दयामय सद्धर्म हो। अर भव्यजन के उदय कारक मोह विरहित देव हों।।२५।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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