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________________ १९४ १९५ ऐसे क्या पाप किए ! सुलभ हो जाती हैं। पर ध्यान रहे , ऐसा उत्कृष्ट पुण्य उन पुण्य के लोभियों को नहीं बँधता, जो उस पवित्र पुण्य को लौकिक भोगों को प्राप्त करने के लिए भुनाना चाहते हैं, बल्कि उन्हें बँधता है जो निष्काम धर्माराधना करते हैं। सातवें लम्ब (अध्याय) में कहा गया है कि जब जीवन्धरकुमार क्षेमपरी से प्रस्थान करके आगे बढे तो उन्हें मार्ग में एक कृषक मिला। उन्होंने उसे सत्पात्र जानकर तत्त्वज्ञान कराते हुए अष्ट मूलगुण समझाकर सच्चा श्रावक बनाया और आगे बढ़ गए। वह सुगन्ध-सुगन्ध ही क्या जो अपने चारों ओर के वातावरण को सुगन्धित न करे। धर्मप्राण जीवन्धरकुमार जहाँ भी जाते, अपने धार्मिक संस्कारों की सुगन्ध बिखेरते ही जाते। जीवन्धरकुमार वनमार्ग से जाते हुए क्षणिक विश्राम हेतु एक पत्थर पर बैठे ही थे कि एक विद्याधरी ने उन्हें देखा । देखते ही वह उनके रूप लावण्य पर मोहित हो गई। वह जीवन्धरकुमार को अपना परिचय देते हुए बोली – मैं अनंगतिलका नामक एक अनाथ कन्या हूँ। मेरे छोटे भाई का साला पहले तो मुझे बलात् यहाँ ले आया और फिर अपनी पत्नी के भय से उसने मुझे यहाँ वन में अकेला ही छोड़ दिया है; अत: आप मेरी रक्षा करने की कृपा करें। जीवन्धरकुमार को एकान्त में किसी परनारी से बात करना अभीष्ट नहीं था; क्योंकि वे जानते थे कि नीतिकारों ने जो स्त्रियों का अंगार के समान और पुरुष को नवनीत के समान बताया है, वह ठीक है। इसी ग्रन्थ के सातवें लम्ब में कहा भी है अङ्गारसदृशी नारी नवनीतसमा नराः। तत्तत्सान्निध्यमात्रेण द्रवेत्पुसां हि मानसम् ।।४१।। अत: वे बिना कुछ कहे-सुने वहाँ से प्रस्थान करने के लिए तैयार हुए ही थे कि उन्होंने पास से आती हुई यह आवाज सुनी कि - "हे प्राणप्यारी! क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति मुझे छोड़कर तू कहाँ चली गई ? तेरे बिना तो मेरे प्राण ही निकले जा रहे हैं।" - यह विलाप उस औरत ने भी सुना । विलाप सुनते ही वह समझ गई कि यह तो मेरे पति की ही आवाज है; अत: झूठ का रहस्योद्घाटन होने के भय से वह स्त्री वहाँ से बहाना बनाकर अन्यत्र चली गई। इतने में ही वह विलाप करनेवाला व्यक्ति जीवन्धरकुमार के पास आया और बोला - मैं अपनी पत्नी को यहाँ बिठाकर जल लेने गया था, वापिस आकर देखता हूँ कि वह यहाँ नहीं है। उसके बिना मेरी विद्याएँ भी नष्टप्राय हो गई हैं। उसकी दयनीय दशा देखकर जीवन्धरकुमार ने उसे इस असार संसार के स्वरूप का बोध कराते हुए बहुत समझाया; परन्तु उस मोही प्राणी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । सो ठीक ही है, मोही व्यक्ति मोह में विवेकशून्य हो ही जाता है। उसे हिताहित का विवेक नहीं रहता। ___ जीवन्धरकुमार उस वन से प्रस्थान कर हेमाभा नगरी के समीप पहुँचे । वहाँ एक बाग में राजा दृढ़मित्र के पुत्र सुमित्र आदि बहुत-से राजकुमार अपने-अपने बाणों द्वारा आम के फलों को तोड़ना चाहते थे; परन्तु धनुर्विद्या में निपुण न होने से असफल हो रहे थे। जीवन्धरकुमार ने एक ही बाण से आम्रफल को बेध कर नीचे गिरा दिया। तब राजकुमारों ने अपना परिचय देते हुए जीवन्धरकुमार से विनम्र निवेदन किया कि - हमें धनुर्विद्या में निपुण बनाने के लिए हमारे पिता आप जैसे ही किसी धनुर्विद्या में निपुण विद्वान की खोज में हैं, अत: आप उनसे मिलने की कृपा करें। उन्हें पात्र जानकर जीवन्धरकुमार राजा दृढ़मित्र से मिले और राजा के निवेदन करने पर जीवन्धरकुमार ने राजकुमारों को धनुर्विद्या में निपुण कर दिया। राजा ने इस महान उपकार से उपकृत होकर एवं अपनी कनकमाला कन्या के योग्य वर जानकर उनके साथ कनकमाला का विवाह कर दिया। (98)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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