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________________ ऐसे क्या पाप किए ! जलक्रीड़ा का उत्सव देखने सुरमञ्जरी और गुणमाला भी नदी किनारे गई थीं। उन दोनों के पास स्नानोपयोगी भिन्न-भिन्न प्रकार के चूर्ण (पाउडर) थे। दोनों सखियों में अपने-अपने चूर्ण की उत्कृष्टता पर विवाद हो गया। विवाद में यह तय हुआ कि परीक्षण के बाद जिसका चूर्ण अनुपयोगी सिद्ध होगा, उसे नदी में स्नान किए बिना ही वापिस जाना होगा। चूर्ण परीक्षकों के पास भेजा गया, परीक्षोपरान्त जीवन्धरकुमार द्वारा किए गए निष्पक्ष और सप्रमाण परिणाम के अनुसार गुणमाला का चूर्ण श्रेष्ठ हुआ । १९० गुणमाला नदी में स्नानकर कुटुम्बीजनों और नौकरों के साथ वापिस लौट रही थी कि रास्ते में काष्ठांगार के एक मदोन्मत्त हाथी ने उसे घेर लिया। इस मौके पर कुटुम्बीजन तो डर कर भाग गए, पर जीवन्धरकुमार जलक्रीड़ा के पश्चात् उसी मार्ग से वापिस आते हुए अचानक वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने हाथी को अपने कुण्डल से ताड़ित कर भगा दिया। बस, फिर क्या था ? जीवन्धरकुमार के पराक्रम, साहस और बुद्धिबल से प्रभावित होकर गुणमाला के हृदय में उनके प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया, फलस्वरूप कालान्तर में दोनों का विवाह हो गया। कथानक को आगे बढ़ाते हुए पाँचवे लम्ब (अध्याय) में कहा गया है कि- गुणमाला की प्राणरक्षा के निमित्त जीवन्धरकुमार द्वारा परास्त और तिरस्कृत हुए हाथी ने खाना-पीना भी छोड़ दिया। इस घटना से ग्रन्थकार पाठकों को यह सन्देश देना चाहते हैं कि तिरस्कार को जब पशु भी सहन नहीं कर पाते तो अकारण किया गया मानवों का तिरस्कार किसी भी सज्जन पुरुष को कैसे सहन हो सकता है ? अतः यदि हम स्वयं शान्ति से रहना चाहते हैं तो कम से कम अकारण तो किसी का भी तिरस्कार न करें। (96) क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति देखो, हाथी ने तो मात्र खाना-पीना ही छोड़ा था, तिरस्कृत मानव तो कषायवश कुछ भी अनर्थ कर सकता है। और तो ठीक, अपने व दूसरों का प्राणघात भी कर सकता है। १९१ जीवन्धरकुमार द्वारा हाथी को तिरस्कृत करने की बात ने हाथी के स्वामी काष्ठांगार के हृदय में अनंगमाला के वरण के कारण पहले से प्रज्वलित क्रोधाग्नि में घी डालने का काम किया। क्रुद्ध काष्ठांगार के द्वारा जीवन्धरकुमार को पकड़वाने के लिए आए सैनिकों से लड़ने के लिए तत्पर जीवन्धरकुमार को युद्ध करने से यदि सेठ गन्धोत्कट नहीं रोकते तो निश्चित ही काष्ठांगार और जीवन्धरकुमार के बीच घमासान युद्ध होता । सेठ गन्धोत्कट ने जीवन्धरकुमार को मात्र युद्ध लड़ने से रोका ही नहीं; अपितु जीवन्धरकुमार के दोनों हाथों को पीठ की ओर पीछे करके कसकर बाँधकर उन्हें काष्ठांगार के समक्ष प्रस्तुत भी कर दिया। प्रतिकार करने में पूर्ण समर्थ जीवन्धरकुमार अपने धर्मपिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करना नहीं चाहते थे, अतः उन्होंने कुछ भी प्रतिक्रिया या रोष तो प्रगट किया ही नहीं; प्रतिकार भी नहीं किया। इस संकटकाल में उन्हें अनायास ही उस यक्षेन्द्र का स्मरण आ गया, जिसने उनके द्वारा दिए णमोकार मन्त्र के प्रताप से ही यक्षेन्द्र पद प्राप्त किया था। उनके स्मरण करते ही वह तुरन्त आया और जीवन्धरकुमार को अपनी विक्रिया शक्ति से चन्द्रोदय पर्वत पर ले गया। वहाँ उसने क्षीरसागर के जल से जीवन्धरकुमार का अभिषेक कर उन्हें सम्मानित किया और तीन शक्तिशाली मन्त्र भी दिए। प्रथम मन्त्र में - इच्छानुकूल वेष बदलने की शक्ति थी, दूसरे मन्त्र में मनमोहक गाना गाने की शक्ति थी तथा तीसरे मन्त्र में - हलाहल विष को दूर करने की शक्ति थी। साथ ही यह भविष्यवाणी भी की कि 'तुम एक वर्ष में ही राजा बन जाओगे और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त करोगे।'
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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