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________________ १८४ ऐसे क्या पाप किए ! इधर राजा सत्यन्धर का विवेक जागृत तो हो गया था; किन्तु जैसे तरकस से छोड़ा गया तीर वापिस नहीं आता, वैसे ही घटित हुई दुर्घटना का परिणाम भी भोगना ही पड़ता है। यह विचार कर राजा सत्यन्धर ने रानी को मयूराकृति विमान में बिठाकर आकाशमार्ग से सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के पूर्व कुछ महत्त्वपूर्ण सन्देश दिया था, जो इसप्रकार है "हे रानी, तुम शोक मत करो ! जिसका पुण्य क्षीण हो जाता है, उसको उदय में आए पापकर्म के फल में प्राप्त दुःख को तो भोगना ही पड़ता है। अब अपना ही पुण्य क्षीण हो गया है और पाप का उदय आ गया है; अत: हम पर दुःख और आपत्तियों का आना तो अनिवार्य ही है। जिसप्रकार क्षणभंगुर जल का बुदबुदा देर तक नहीं टिक सकता, उसी-प्रकार यौवन, शरीर, धन-दौलत, राजशासन आदि अनुकूल संयोग भी क्षणभंगुर ही हैं। इसकारण इन अनुकूल संयोगों का वियोग होना अप्रत्याशित नहीं है, अत: तुम शोक मत करो। यद्यपि यह सब मेरे मोहासक्त होने का ही दुष्परिणाम है; पर मैं भी क्या करूँ ? जो होना था, वही तो हुआ है। तुम्हारे स्वप्नों ने पहले ही हमें इन सब घटनाओं से अवगत करा दिया था। स्वप्नों के फल यही तो दर्शाते हैं कि अब अपना पुण्य क्षीण हो गया है; अत: वस्तुस्वरूप का विचार कर धैर्य धारण करो।" इसप्रकार राजा ने रानी को समझाया। प्रथम लम्ब के शेष श्लोकों में भी अत्यन्त मार्मिक धर्मोपदेश दिया गया है, जो मूलत: पठनीय है। पुण्य-पाप के उदय में भी कैसी-कैसी चित्र-विचित्र परिस्थितियाँ बनती हैं ? कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । एक ओर ऐसा पापोदय, क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति १८५ जिसके उदय में भयंकर एवं दुःखद प्रतिकूल परिस्थितियों की भरमार और दूसरी ओर पुण्योदय भी ऐसा कि मानवों की बात ही क्या ? देवी-देवता भी सहायक हो जाते हैं, सेवा में उपस्थित हो जाते हैं। यद्यपि पापोदय के कारण जीवन्धरकुमार का जन्म श्मशान (मरघट) में हुआ, जन्म के पूर्व ही पिता सत्यन्धर स्वर्गवासी हो गए, माँ विजया भी असहाय हो गईं; परन्तु साथ ही पुण्योदय भी ऐसा कि सहयोग और सुरक्षा हेतु स्वर्ग से देवी भी दौड़ी-दौड़ी आ गई। पुण्यवान जीव कहीं भी क्यों न हो, उसे वहीं अनुकूल संयोग स्वतः सहज ही मिल जाते हैं। विजयारानी के प्रसव होते ही तत्काल चम्पकमाला नामक देवी धाय के वेष में वहाँ श्मशान में जा पहुँची। उसने अपने अवधिज्ञान से यह जाना कि - इस बालक का लालन-पालन तो राजकुमार की भाँति शाही ठाट-बाट से होनेवाला है। अत: देवी ने विजयारानी को आश्वस्त किया कि आप इस बालक के पालन-पोषण की चिन्ता न करें। इस बालक का पालन-पोषण बड़े ही प्यार से किसी कुलीन खानदान में रहकर धर्मप्रेमी श्रीमन्त दम्पत्ति द्वारा योग्य रीति से होगा। देवी द्वारा की गई भविष्यवाणी के अनुसार ही जीवन्धरकुमार सेठ गन्धोत्कट और उसकी सेठानी सुनन्दा के घर सुखपूर्वक रहते हुए शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति वृद्धिंगत होने लगे। उधर विजयारानी भी वन में तपस्वियों के आश्रम में जाकर धर्म-आराधना करते हुए अपने मानवजीवन को सफल करने लगीं। ___ इस ग्रन्थ के दूसरे लम्ब (अध्याय) का आरम्भ पाँच वर्षीय बालक जीवन्धर के विद्या-अध्ययन से आरम्भ होता है। एकबार जीवन्धरकुमार के गुरु सर्वविद्या विशारद आर्यनन्दी ने अपने श्रुतशालिन महाभाग शिष्य जीवन्धरकुमार को एक प्रसिद्ध पुरुष राजा लोकपाल की कथा सुनाते हुए कहा "न्यायप्रिय प्रजापालक राजा लोकपाल स्वयं तो धर्मात्मा थे ही, प्रजा को भी समय-समय पर धर्मोपदेश दिया करते थे। एकबार राजा २. वही : श्लोक ५८, ५९, ६० (93)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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