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________________ १७० ऐसे क्या पाप किए! १७१ समयसार : संक्षिप्त सार जाने क्यों, अज्ञानी को इनमें अन्तर दिखाई देता है? दोनों आत्मा के स्वरूप को भुलाने वाले हैं, अतः अंधकूप व कर्मबंधरूप हैं, अतः दोनों का ही मोक्षमार्ग में निषेध हैं। समयसार के हिन्दी-टीकाकार पण्डित जयचंदजी छाबड़ा कहते हैं - “पुण्य-पाप दोऊ करम, बन्ध रूप दुर मानि । शुद्ध आतमा जिन लह्यो, न| चरण हित जानि ।।' पुण्य व पाप दोनों ही कर्म बन्धरूप हैं, अतः दोनों एक समान दुःखद है, तब वह तत्त्व ज्ञानी सम्यक्दृष्टि एवं संयमी होता है। ३. पुण्य-पाप : स्वर्ण-लोहमय बेडियाँ - आचार्य कुन्दकुन्द शुभ और अशुभ दोनों कर्मों को कुशील कहते हैं। अशुभकर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील मानने वाले अज्ञानीजनों से वे पूछते हैं कि जो कर्म हमें संसाररूप बन्दीगृह में बन्दी बनाता है वह सुशील कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता। जैसे पुरुष को सोने की बेड़ी भी बाँधती है और लोहे की बेड़ी भी बाँधती है, उसी प्रकार शुभ अशुभ कर्म भी जीवों को समान रूप से सांसारिक बन्धन में बाँधते हैं। ___दुर्जन पुरुष के संसर्ग की भाँति इन दोनों कुशीलों के साथ राग व संसर्ग करना उचित नहीं है क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग एवं राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है। जिनेन्द्र भगवान का यह उपदेश है कि रागी जीव कर्म से बँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मबन्ध से छूटता है, अतः शुभाशुभ कर्मों में प्रीति करना ठीक नहीं है। वस्तुतः यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि शुद्धोपयोग पर ही केन्द्रित है, वे शुभाशुभ दोनों ही भावों को एक जैसा संसार का कारण होने से हेय मानते हैं। कविवर बनारसीदास ने तो इस अधिकार का नाम ही पुण्यपापएकत्वद्वार रखा है। उसके अनुसार - पापबन्ध व पुण्यबन्ध - दोनों ही मुक्तिमार्ग में बाधक हैं, दोनों के कटु व मधुर स्वाद पुद्गल हैं, संक्लेश व विशुद्धभाव दोनों विभाव हैं, कुगति व सुगति दोनों संसारमय हैं। इस प्रकार दोनों के कारण रस, स्वभाव और फल-सभी समान हैं। फिर भी न कविवर बनारसीदासजी ने गुरु-शिष्य-संवाद के रूप में पुण्य-पाप की यथार्थ स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जबतक शुभ-अशुभ क्रिया के परिणाम रहते हैं तबतक ज्ञान-दर्शन उपयोग और वचन-काय योग चंचल रहते हैं तथा जबतक ये स्थिर न होवें तबतक शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता। इसलिए दोनों ही क्रियाएँ मोक्षमार्ग का छेद करने वाली हैं, दोनों ही बंध कराने वाली है. दोनों में से कोई भी अच्छी नहीं हैं। इसप्रकार दोनों ही मोक्षमार्ग में बाधक हैं - ऐसा विचार करके शुभअशुभ क्रिया का निषेध किया गया है। ___ इसप्रकार मोक्षमार्ग में पुण्य-पाप का क्या स्थान है, यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गई, फिर भी पापकार्यों से बचने के लिए पुण्य कार्यों की भी अपनी उपयोगिता है - इस बात को दृष्टि से ओझल न करते हुए यथायोग्य विवेचना करते हुए पुण्य के प्रलोभन से बचे और पुण्य कार्यों (शुभभावों) को ही धर्म न समझ लिया जाय - इस बात से भी सावधान रहे। ४. आस्रव तत्व : संसार कारण तत्त्व - समयसार के आस्रव के प्रकरण में आचार्य कुन्दकुन्द ने संसार के १. समयसार, गाथा १४५ ३. समयसार, गाथा १४७ २. समयसार, गाथा १४६ ४. समयसार, गाथा १५० १. समयसार नाटक, पुण्य-पाप-एकत्वद्वार, छन्द-६ २. समयसार के पुण्यपापाधिकार की भाषावनिका का मंगलाचरण, पृष्ठ २४१ ३. समयसार नाटक, पुण्य-पाप-एकत्वद्वार, छन्द १२ (86)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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