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________________ ऐसे क्या पाप किए ! भले ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत कमजोरी के कारण सम्पूर्ण रूप से अहिंसक आचरण नहीं कर पाता हो, व्यसनों का त्याग न कर पाता हो, अपरिग्रह के सिद्धान्त को पूरी तरह न अपना पाता हो, तथापि सिद्धान्त रूप से तो प्रायः सभी जैनाचार और जैन सिद्धान्तों के प्रशंसक ही हैं। १२६ जैन समाज की समृद्धि का कारण भी जैन आचरण ही है; वह कितना भी खर्च करे; शुद्ध सात्विक शाकाहारी दाल-रोटी में कितना खर्च होगा ? दूध-घी में डूबा भी रहे तो भी मांसाहार और शराब के साथ जिसे रंगरेलियों के लिए सुन्दरियाँ भी चाहिए, उनकी तुलना में तो वह खर्च कुछ भी नहीं है । जैनधर्म के अनुसार मांसाहार और शराब, भाँग, चरस - गांजा आदि तो त्याज्य है ही, परस्त्रीगमन और वैश्यागमन को भी दुर्व्यसन कहकर उसकी घोर निन्दा की है। शराबी और परनारी रत जैनी का जैन समाज में कोई स्थान नहीं होता, ऐसा व्यक्ति सम्पूर्णतया उपेक्षित ही रहता है; इस कारण जैन समाज अधिक समृद्ध है। हाँ, जब भी ये दुर्व्यसन जैनों में आ जायेंगे, वह भी बर्बाद हो जायेगा । सामाजिक प्रदेय - दान और उदारता के क्षेत्र में भी जैनसमाज सदैव अग्रणी रहा है। यह उदारता भी जैनों ने अपने धर्म और दर्शन से ही सीखी है। आचार्य उमास्वामी का स्पष्ट आदेश है- “अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानं' अर्थात् अपने और दूसरों कि भलाई के लिए अपने न्यायोपात्त उपार्जित धन का देना ही सच्चा दान है। आज हम देखते हैं कि हजारों बड़े-बड़े शिक्षा संस्थान, धर्मायतन, औषधालय, छात्रवृत्तियाँ आदि द्वारा अनगिनत लोकोपकारी कार्य जैनसमाज द्वारा सम्पन्न हो रहे हैं। यही सब जैनधर्म का भारतीय समाज को प्रदेय है। मैं अपेक्षा करता हूँ, आशा रखता हूँ कि जैन और जैनेत्तर समाज जैनधर्म को जीवन में अपनाकर इस तरह अध्यात्म और लोकोपकार के क्षेत्र में अग्रणी रहकर अपना मानव जीवन सार्थक करें। (64) १३ पंचकल्याणक : पाषाण से परमात्मा बनने की प्रक्रिया भरतक्षेत्र के प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन में जो पाँच कल्याणकारी, दिव्य सातिशय और अनुपम घटनायें घटती हैं, उन्हें ही पंचकल्याणक कहते हैं । 'पंच' शब्द तो मात्र पाँच संख्या का सूचक है और कल्याणक का अर्थ है कल्याणकारी मंगलमय महोत्सव । अथवा वैराग्यवर्द्धक, वीतरागता के पोषक, आत्मानुभूति में निमित्तभूत प्रेरणा- प्रद-पावन प्रसंग । ये पंचकल्याणक भव्य जीवों को संसार सागर से पार होने में निमित्त बनते हैं। इनके नाम हैं- गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक । जिनागम के अनुसार ये पंचकल्याणक तीर्थंकरों के ही होते हैं और 'तीर्थंकर' का अर्थ होता है - जो जगत के जीवों को जन्म-मरण और आधि-व्याधि-उपाधि के असह्य दुःखों के भव सागर से तारने में नौका के समान निमित्त हों । जीव पूर्व जन्म में विश्वकल्याण की भावना भाता है, समस्त संसारी जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखता है, उन्हें सम्पूर्ण रूप से सुखी देखना चाहता है, जिनके हृदय में निष्प्रयोजन करुणा होती है, जो सबकी मंगल कामना करता है, उन्हें 'तीर्थंकर' नामक ऐसे सातिशय पुण्य कर्म का बन्ध होता है, जिसके फल में वह परमोत्कृष्ट, जगत पूज्य, सौ-सौ इन्द्रों द्वारा वंदनीय 'तीर्थंकर' पद को प्राप्त करता है। जब उस तीर्थंकर पद को पाने वाला जीव 'माँ' के गर्भ में आता है तो गर्भ में आने के छह माह पूर्व से जन्म होने तक अर्थात् पन्द्रह माह तक इन्द्र की आज्ञा से धन कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। दिग् कुमारी देवियों द्वारा तीर्थंकर की माता की
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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