SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० ऐसे क्या पाप किए ! तथा “पर्याय सब क्रमनियमित व क्रमबद्ध ही होती हैं। "जो जो देखी वीतराग ने, सो-सो हो सी वीरा रे । अनहोनी होसी नहीं कबहूँ, काहे होत अधीरा रे।।” तथा च "संयोग का वियोग निश्चित है। पर्यायें परिणमनशील हैं, आत्मा अजर-अमर अविनाशी है; धनादि बाह्यनुकूल संयोग परिश्रम से नहीं पुण्योदय के निमित्त से प्राप्त होते हैं, रोगादि भी पापोदय के दुष्परिणाम हैं।” ऐसे विचार को आचरण में लें, इससे जीवन में सुख-शांति का संचार होता है। तात्पर्य यह है कि जब जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ निमित्त हों ऐसे अवसर पर हम उक्त सिद्धान्तों को जिन्हें शास्त्रानुसार जानते हैं उन्हें आत्मानुसार प्रतीति में लेकर निराकुल रहने का प्रयास करें। यद्यपि भूमिकानुसार ज्ञानी जीवों को भी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन कषाय सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की ३ चौकड़ी विद्यमान हैं । इन कषायों का सद्भाव होने से आकुलता होना अस्वाभाविक नहीं है, पर्याय की कमजोरी से इन्कार भी नहीं किया जा सकता । क्षायिक समकिती भरत- बाहुबलि, राम-लक्ष्मण आदि के उदाहरण शास्त्रों में देखे जा सकते हैं। जितनी कषाय विद्यमान है, तज्जनित अशान्ति व आकुलता होगी ही, किन्तु जब नारकी भी पर्याय जनित अनंत प्रतिकूलता में समतारसपान कर सकते हैं तब हमें भी उनसे प्रेरणा लेनी होगी। दौलतरामजी का एक भजन है जिसमें समकिती नारकी का चित्र प्रस्तुत किया गया " ऊपर नारकिकृत दुःख भोगे, अन्तर सम रस, गटा-गटी । चिन्मूरत दृग धारी की मोहि रीति लगत कुछ अटा-पटी ।। " - (61) धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग है १२१ तब हमें वैसी प्रतिकूलता तो नहीं है। ऐसा विचार कर समता, शान्ति व धैर्य धारण करना चाहिये। ये भी एक विचारात्मक-विकल्पात्मक प्रयोग है। यदि अज्ञानी की तरह हमारे अन्तर में भी वैसा ही विलाप, हाय-हाय, आकुलता, संक्लेशरूप आर्तरौद्र ध्यान चलता रहे तो हमारे वे सिद्धान्त क्या कोरी परिभाषायें ही बनकर नहीं रह जायेंगे ? प्रतिकूल प्रसंग हमारे लिए परीक्षा की घड़ी हैं, खरे-खोटे की परख के लिए कसौटी है । आत्मानुभवी जीव का पुरुषार्थ, श्रद्धा के बल पर निरंतर समता की ओर होता है, ज्ञानाभ्यास तो जितना हो अच्छा ही है; परन्तु ज्ञान की सार्थकता सफलता प्रयोग में ही है। इस प्रयोग की प्रारंभिक भूमिका में बाह्याचरण रूप में तो लोकाचार विरुद्ध अन्याय-अनीति अभक्ष्यादि भक्षण से बचाव रूप होता है। धीरे-धीरे कालान्तर में विशुद्धि के अनुसार संयम की भूमिका भी आती है। इस तरह अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता हुआ पुरुषार्थी जीव कालान्तर में पूर्णता को अवश्य ही प्राप्त होगा। इसमें देर हो सकती है, पर अन्धेर नहीं । हम सब लोग इस प्रकार सही स्वरूप को समझकर उसे जीवन में उतारें और शीघ्र ही पूर्णता को प्राप्त हो, यह पवित्र भावना है। मृत्यु कोई गम्भीर समस्या नहीं है सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो मृत्यु कोई गम्भीर समस्या ही नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता । तत्त्वज्ञानी यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तरण मात्र है, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतार कर नया वस्त्र धारण करने के समान है। - सुखी जीवन, पृष्ठ- १९१
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy