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________________ समाधि-साधना और सिद्धि ऐसे क्या पाप किए! समाधिरूप वृक्ष के फल खाये जाते हैं; बीज तो समाधि अर्थात् समताभाव से जीवन जीने का अभी ही बोना होगा; तभी तो उस समय समाधिमरणरूप फल प्राप्त हो सकेगा। कहा भी है - "दर्शन-ज्ञान-चारित्र को, प्रीति सहित अपनाय । च्युत न होय स्वभाव से, वह समाधि फल पाय ।। समाधि तो साम्यभावों से निष्कषाय भावों से, निराकुलता से जीवन जीने की कला है, उससे मरण का क्या सम्बन्ध? हाँ, जिसका जीवन समाधिमय होता है, उसका मरण भी समाधिमय हो जाता है; मरण की चर्चा तो मात्र सजग व सावधान करने के लिए, शेष जीवन को सफल बनाने के लिए, संवेग भावना जगाने के लिए बीच-बीच में आ जाती है। सो उसमें भी अपशकुन जैसा कुछ नहीं है। ___ भाई मौत की चर्चा अपशकुन नहीं है, बल्कि उसे अपशकुन मानना अपशकुन है। हमें इस खरगोश वाली वृत्ति को छोड़ना ही होगा, जो मौत को सामने खड़ा देख अपने कानों से आँखें ढंक लेता है और स्वयं को सुरक्षित समझ लेता है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं, वे सभी मरते तो हैं ही; परन्तु सभी जीवों की मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा नहीं दी जा सकती, उनके मरण को समाधिमरण नहीं कहा जा सकता। हाँ, जिन्होंने तत्त्वज्ञान के बल पर अपना जीवन भेदविज्ञान के अभ्यास से, निज आत्मा की शरण लेकर समाधिपूर्वक जिया हो, निष्कषाय भावों से, शान्त परिणामों से जिया हो और मृत्यु के क्षणों में देहादि से ममता त्यागकर समतापूर्वक प्राणों का विसर्जन किया हो; उनके उस प्राणविसर्जन की क्रिया-प्रक्रिया को ही समाधिमरण या मृत्यु-महोत्सव कहते हैं। ___एतदर्थ सर्वप्रथम संसार से सन्यास लेना होता है। सन्यास अर्थात् संसार, शरीर व भोगों को असार, क्षणिक एवं नाशवान तथा दुःखरूप व दुःख का कारण मानकर उनसे विरक्त होना । सन्यास की सर्वत्र यही व्याख्या है। ऐसे संसार, शरीर व भोगों से विरक्त आत्म साधना के पथ पर चलनेवाले भव्यात्माओं को सन्यासी कहा जाता है। साधु तो सन्यासी होते ही हैं, गृहस्थों को भी इस सन्यास की भावना को निरन्तर भाना ही चाहिए। 'समाधि' के लिए निजस्वरूप की समझ अनिवार्य है। आत्मा की पहचान, प्रतीति व श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। सच्चे-देव-शास्त्रगुरु की श्रद्धा उसमें निमित्त होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग पर अग्रसर होकर सन्यासपूर्वक ही समाधि की साधना संभव है। सम्यग्दर्शन अर्थात् वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा, जीव, अजीव, आस्रव बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्य-पाप आदि सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थों की सही समझ, इनमें हेयोपादेयता का विवेक एवं देव-शास्त्रगुरु की श्रद्धा अनिवार्य है। इसके बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव नहीं है, जोकि मोक्षमार्ग का प्रथमसोपान है। सन्यास व समाधि भी इसके बिना संभव नहीं है। तत्वों का मनन, मिथ्यात्व का वमन, कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, आत्मा में रमण- यही सब समाधि के सोपान हैं। वस्तुतः - कषाय रहित शान्त परिणामों का नाम ही तो समाधि है। ___ शास्त्रीय शब्दों में कहें तो - “आचार्य जिनसेन कृत महापुराण के इक्कीसवें अध्याय में कहा है - 'सम' शब्द का अर्थ है एकरूप करना, मन को एकरूप या एकाग्र करना । इसप्रकार शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना समाधि शब्द का अर्थ है।" ___ इसीप्रकार भगवती आराधना में भी समाधि के सम्बन्ध में लिखा है - “सम शब्द का अर्थ है एकरूप करना, मन को एकाग्र करना, शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना। (49)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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