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________________ ऐसे क्या पाप किए! भक्तामर स्तोत्र : एक निष्काम भक्ति स्तोत्र उस भक्ति में लौकिक स्वार्थसिद्धि की गन्ध नहीं होती, किसी फल की आशा नहीं होती और भयकृत भीरुता भी नहीं होती। भय, आशा और स्नेह व लोभ से या लौकिक कार्यों की पूर्ति के लिए की गई भगवद्भक्ति तो अप्रशस्त राग होने से पापभाव ही है, उसका नाम भक्ति नहीं है। गृहीत मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा लौकिक कार्यों की पूर्ति के लिए की गई भगवद्भक्ति तो अप्रशस्त राग होने से पापभाव ही है, उसका नाम भक्ति नहीं है। यद्यपि गृहीत मिथ्यादृष्टि जीव, जो लौकिक कार्यों की सिद्धि हेतु कुदेवादि की उपासना करते हैं, उनके कुदेवादि की उपासनारूप अज्ञान एवं गृहीत मिथ्यात्व छुड़ाने के प्रयोजन से प्रथमानुयोग में या इसी शैली के अन्य शास्त्रों में इसप्रकार की भक्ति की भी कदाचित् सराहना हो सकती है, किन्तु उसकी आड़ में हमें अपने अज्ञान की सुरक्षा करना योग्य नहीं है। अत: नि:स्वार्थभाव से किया गया धर्म व धर्मायतनों के प्रति प्रशस्त एवं विशिष्ट अनुराग ही यथार्थ भक्ति की कोटि में गिना जा सकता है। आगम में भी इस बात की पुष्टि में अनेक उल्लेख मिलते हैं, उनमें से कुछ प्रसिद्ध आचार्यों ने उल्लेख प्रमाणस्वरूप यहाँ प्रस्तुत करते हैं - (१) अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय आदि बहुश्रुत संतों में और जिनवाणी में भावों की विशुद्धिपूर्वक जो प्रशस्त अनुराग होता है, उसे भक्ति कहते हैं। (२) अर्हदादि के गुणों में प्रेम करना भक्ति है। (३) जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुण-भेद जानकर उनकी भी परमभक्ति करता है, उस जीव की भक्ति को व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति कही है। १. "अर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति।"-सर्वार्थसिद्धि ६/२४/२३९ २. अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः - भगवती आराधना वि. ४७/१५९ ३. "मोक्खगयं पुरिसाणं गुणभेद जाणिऊण तेसि पि"... - नियमसार गाथा १३५ (४) व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियों के पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप सम्यक् भक्ति होती है। (५) “निज परमात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-अवबोध-आचरणरूप शुद्ध रत्नत्रयपरिणामों का जो भजन है, वह भक्ति है। आराधन - ऐसा उसका अर्थ है। एकादशपदी श्रावक (क्षुल्लक ऐरावत) शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं।"२ (६) निश्चयनय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध आत्मतत्त्व की भावनारूप भक्ति होती है। यद्यपि जिनेन्द्र भगवान का भक्त यह जानता है कि उसके इष्टदेव अरहन्तभगवान परमवीतरागी है, अत: वे किसी का कुछ भी भलाबुरा नहीं करते, न किसी से कुछ लेते-देते हैं। वस्तु-स्वातन्त्र्य के सिद्धान्त में एवं कर्म-सिद्धान्त में भी किसी अन्य के भला-बुरा करने की व्यवस्था नहीं है; तथापि व्यवहारभक्ति में वीतरागी भगवान को भी सुख-दुःख का कर्ता-हर्ता कहने का व्यवहार है। (१) तार्किक शिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्य ने लिखा भी है - "हे नाथ! नआपको पूजा से कोई प्रयोजन है और न निन्दा से, क्योंकि आप समस्त बैर-विरोध का परित्याग करके परम वीतराग हो गये हो, तथापि आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पापों से मुक्त करके पवित्र कर देता है।" १. "भक्ति पुन: सम्पक्त भण्यते व्यवहारेण सराग सम्यग्दृष्टिनां पंचपरमेष्ठिचाराधनारूपा।" - समयसार, तात्पर्यवृत्ति टीका १७३/१७६/२४३ २. "निजपरमात्मतत्त्वसम्यकुश्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भाजनं भक्तिराराधनेत्यर्थः । एकादशपदेषु श्रावकेषु सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्ति कुर्वन्ति।" ___ - नियमसार तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ १३४ ३. वीतरागसम्यग्दृष्टिनां शुद्धात्मतत्त्वभावनारूपा चेति।। -समयसार तात्पर्यवृत्ति, १७३/१७६/२४३ ४. न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागेः, न निन्दया नाथविवान्त वैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृति पुनाति चित्तं दुरिताजनेभ्यः ।।५७ ___ - वासुपूज्य स्तुति, वृहत्स्वयंभू स्तोत्र (37)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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