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________________ सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ ऐसे क्या पाप किए! सतत लगे रहनेवाले अधिकांश न्यायविदों का भी इस ओर ध्यान नहीं गया। ज्ञानस्वभाव एवं ज्ञेयस्वभाव की स्वतंत्रता का इससे प्रबल प्रमाण और क्या हो सकता है? इसे सहज संयोग ही कहा जाएगा कि इस कलिकाल में सदियों से समय-समय पर दिगम्बर धर्म के मूलभूत विस्मृत सिद्धान्तों को पुनः प्रकाश में लाने का अधिकांश श्रेय जन्मजात गैर-दिगम्बरों (परिवर्तित दिगम्बरों) को ही मिला है। अष्टसहस्री के कर्ता श्री विद्यानन्दि आचार्य से लेकर श्री कानजीस्वामी तक सदियों पुराना जैन-साहित्य का इतिहास इसका साक्षी है। इस सदी में क्रमबद्धपर्याय जैसे क्रान्तिकारी परमशान्ति-दायक सिद्धान्त के उद्घाटक के रूप में श्री कानजीस्वामी को सदैव याद किया जाएगा। यद्यपि स्वामीजी जन्मजात दिगम्बर जैन नहीं थे, परन्तु भली होनहार के कारण उन्हें दिगम्बर जैन आगम हाथ लग गया और उन्होंने अपने पूर्व संस्कार और वर्तमान पुरुषार्थ के बल से आगम में से जो जैनदर्शन के अनमोल सिद्धान्त निकाले; क्रमबद्धपर्याय' भी उनमें से एक सिद्धान्त है, जिसे उन्होंने अपने १३ प्रवचनों के माध्यम से विस्तार से समझाया है, जिसके पुस्तकाकार प्रकाशन का नाम 'ज्ञानस्वभाव ज्ञेयस्वभाव' है। जैनदर्शन से सम्बन्धित होने से यहाँ इस विषय पर जिनागम के परिप्रेक्ष्य में सयुक्ति एवं सोदाहरण अनुशीलन अपेक्षित है।" "क्रमबद्धपर्याय से आशय यह है कि इस परिणमनशील जगत की परिणमन व्यवस्था क्रमनियमित है। जगत में जो भी परिणमन निरन्तर हो रहा है, वह सब एक निश्चित क्रम में व्यवस्थितरूप से हो रहा है। स्थूल दृष्टि से देखने पर जो परिणमन अव्यवस्थित दिखाई देता है, गहराई से विचार करने पर उसमें भी एक सुव्यवस्थित व्यवस्था नजर आती है।" ____ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ मात्र यह नहीं कहा गया है कि पर्यायें क्रम से होती हैं; अपितु यह भी कहा गया है कि वे नियमितक्रम में होती हैं। आशय यह है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में, जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थपूर्वक, जैसी होनी है; उस द्रव्य की, वह पर्याय, उसी काल में, उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थपूर्वक वैसी ही होती है, अन्यथा नहीं - यह नियम है। जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है - "जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ।।३२१ ।। तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कदि वारे, इंदो वा तह जिणिंदो वा ।।३२२ ।। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुट्ठिी ।।३२३।। जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है। इसप्रकार निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो इसमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।" इसी क्रम में प्राचीन हिन्दी कवियों और टीकाकारों के द्वारा सशक्त भाषा में जो पद्य व गद्य में विचार व्यक्त किए गए हैं, मूलतः द्रष्टव्य हैं। भैया भगवतीदास कहते हैं - "जो-जो देखी वीतराग ने, सो-सो होसी वीरा रे। बिन देख्यो होसी नहिं क्यों ही, काहे होत अधीरा रे ।। समयो एक बरै नहिं घटसी, जो सुख-दुख की पीरा रे। तू क्यों सोच करै मन कूड़ो, होय वज्र ज्यों हीरा रे।।" (33)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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