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________________ ऐसे क्या पाप किए! निष्कर्ष के पाँच बोल १. आज तक परद्रव्य ने मेरा भला-बुरा किया ही नहीं, क्योंकि न परद्रव्य सुखदायक हैं, न दुःखदायक । आज तक मैंने भी परद्रव्य का भला बुरा नहीं किया, अतः उठाओ संयोगों पर से दृष्टि । २. आज तक मैंने संयोगों पर दृष्टि रखकर, संयोगी भाव करके हानि का ही व्यवसाय किया है। यदि हानि नहीं करना हो तो उठाओ संयोगी भावों पर से दृष्टि। ३. घबराने की कोई बात नहीं है; क्योंकि वह हानि पर्याय में ही हुई है, ध्रुव स्वभाव में नहीं। तथा ध्रुव स्वभाव के आश्रय से उस हानि को मेट कर अनंत लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए सदैव स्वभाव का ही आश्रय व आराधना करने योग्य है। ४. हेय, ज्ञेय, उपादेय की दृष्टि से संयोग मात्र ज्ञेय हैं, संयोगीभाव हेय हैं और स्वभाव के साधन एकदेश उपादेय है तथा स्वभाव सर्वथा उपादेय हैं, अतः सब पर से दृष्टि हटाकर मात्र स्वभाव पर दृष्टि जमाओ। ५. सात तत्त्वों की दृष्टि से देखें तो संयोग अजीव तत्त्व हैं, अतः मात्र ज्ञेय हैं, संयोगी भाव आस्रव-बंध है, अतः हेय है, स्वभाव स्वयं जीवतत्त्व है, अतः उपादेय एवं ध्येय है। स्वभाव के साधन एकदेश उपादेय हैं। सिद्धत्व मोक्ष स्वरूप है। अतः यह भी उपादेय है, ध्येय है। इनका श्रद्धान और साधना करने से भवरोग से मुक्ति मिल जाती है। सारांश यह है कि संयोग और संयोगी भाव सादि-सान्त हैं, इनका अभाव कर अनादि-अनन्त स्वभाव के आश्रय से अनादि सान्त-विभाव का अभाव करके सादि अनन्त सिद्ध पर्याय प्रगट की जा सकती है। सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ 'सर्वं जानातीति सर्वज्ञः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्वज्ञ शब्द का अर्थ है सबको जानने वाला। “सर्वज्ञ शब्द में जो सर्व शब्द है उसका तात्पर्य त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों से है। जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को युगपत हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ है।" इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए षट्खण्डागम में निम्नांकित सूत्र है - सई भयवं उप्पण्णणाणदरिसी...सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति । (प्रकृति अनुयोग द्वारा सूत्र ५२) इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार (गाथा ४७) में लिखते हैं - "जो ज्ञान युगपत सब आत्मप्रदेशों से तात्कालिक और अतात्कालिक विचित्र और विषम सब पदार्थों को जानता है। उस ज्ञान को क्षायिक ज्ञान कहते हैं। प्रश्न :- जीव नियत स्थान और नियत काल में स्थित होकर भी त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को कैसे जानता है? इस प्रश्न के उत्तर में द्रव्य स्वरूप का निर्देश करते हुए आप्तमीमांसा में लिखा है - "नैगमादि नयों और उपनयों के विषयभूत भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालसम्बन्धी समस्त पर्यायों के तादात्म्य सम्बन्धरूप समुच्चय का नाम द्रव्य है। वह द्रव्य एक होकर भी अनेक हैं।" इसका आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्य वर्तमान पर्यायमात्र न होकर तीनों कालों की पर्यायों का पिण्ड है, इसलिए एक द्रव्य के ग्रहण होने पर . १. नयोपनयैकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः। अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।। (30)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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