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________________ ऐसे क्या पाप किए! पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और श्रावकाचार ___ - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल पुरुषार्थसिद्धयुपाय के रचयिता आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे परम आध्यात्मिक संत, गहन तात्त्विक चिन्तक, रससिद्ध कवि, तत्त्वज्ञानी एवं सफल टीकाकार थे। आत्मरस में निमग्न रहने वाले आचार्य अमृतचन्द्र की सभी गद्य-पद्य रचनायें अध्यात्मरस से सराबोर हैं। वे अपने परवर्ती आचार्यों एवं विद्वानों द्वारा भी बहुत आदरपूर्वक स्मरण किए गए हैं। समयसार के भाषा टीकाकार, पण्डित जयचंद छाबड़ा ने उन्हें सुधाचन्द्र सूरि करी संस्कृत टीका वर' तथा तत्त्वार्थसार के टीकाकार ने 'अमृतेन्दु महा सूरि नाना नय विशारदः' कहकर अमृतचन्द्र को 'सूरि' विशेषण लगाकर तथा 'नानानय विशारदः' कहकर स्तुति की है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के टीकाकार आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने इन्हें 'मुनीन्द्र' उपाधि से अलंकृत करते हुए ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा एक ओर इस ग्रन्थ में उनकी संस्कृत भाषा इतनी सरल व सहज बोधगम्य है, वहीं दूसरी ओर उनके टीका ग्रन्थों में लम्बी-लम्बी समासयुक्त पदावली भी देखी जा सकती है। अमृतचन्द्र का गद्य-पद्य दोनों शैलियों पर समान अधिकार है। वे केवल आध्यात्मिक सन्त ही नहीं, बल्कि एक रससिद्ध कवि एवं विचारशील लेखक भी हैं। ___ आपकी पद्य शैली में स्पष्टता, सुबोधता, मधुरता और भावाभिव्यक्ति की अद्भुत सामर्थ्य है। सभी पद्य प्रसाद गुण संयुक्त और शांत रस से सराबोर हैं। यद्यपि यह सम्पूर्ण ग्रंथ आर्या छन्द में है, तथापि आपके परम अध्यात्म तरंगिणी आदि पद्यकाव्यों में विविध प्रकार के छन्दों की इन्द्रधनुषी छटा भी दर्शनीय है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय :- प्रस्तुत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ आचार्य अमृतचन्द्र की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली मौलिक रचना है। आजतक के सम्पूर्ण श्रावकाचारों में इसका स्थान सर्वोपरि हैं। इसकी विषयवस्तु और प्रतिपादन शैली तो अनूठी है ही, भाषा एवं काव्य सौष्ठव भी साहित्य की कसौटी पर खरा उतरता है। अन्य किसी भी श्रावकाचार में निश्चयव्यवहार, निमित्त-उपादान एवं हिंसा-अहिंसा का ऐसा विवेचन और अध्यात्म का ऐसा पुट देखने में नहीं आया। प्रायः सभी विषयों के प्रतिपादन में ग्रन्थकार ने अपने आध्यात्मिक चिन्तन एवं भाषा शैली की स्पष्ट छाप छोड़ी है। वे अपने प्रतिपाद्य विषय को सर्वत्र ही निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करते हैं। उक्त संदर्भ में प्रभावना अंग सम्बन्धी निम्नांकित छन्द दृष्टव्य हैं - “आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रय तेजसा सततमेव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।। रत्नत्रय के तेज से निरन्तर अपनी आत्मा को प्रभावित करना निश्चय "अमृतचन्द्र मुनीन्द्र कृत ग्रन्थ श्रावकाचार, अध्यात्मरूपी महा आर्याछन्द जु सार। पुरुषारथ की सिद्धि को जामें परम उपाय, जाहि सुनत भव भ्रम मिटै आतम तत्त्व लखाय।" इसप्रकार मुनीन्द्र, आचार्य, सूरि जैसी गौरवशाली उपाधियों से उनके महान व्यक्तित्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त सरल, सुबोध और प्रांजल है। जहाँ (133)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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