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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग युगपदनेकविधस्य बन्धनोपाधे: सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रोपाश्रयोपरक्त: स्फटिकोपल इवात्यन्ततिरोहितस्वभाव-भावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाण: पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः। अथायमेव प्रतिबोध्यते-रे दुरात्मन्, आत्मपंसन् जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम्। दूरनिरस्तसमस्त-सन्देहविपर्यासानध्यवसायेन विश्वकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं मदमेमित्यनुभवसि, यतो यदि कथञ्चनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात् पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल घटेत, तत्तु न कथञ्चनापि स्यात्। टीका:- एक ही साथ अनेक प्रकारकी बंधनकी उपाधिकी अति निकटासे वेगपूर्वक बहते अस्वभावभावोंके संयोगवश जो (अप्रतिबुद्ध अज्ञानी जीव) अनेक प्रकारके वर्णवाले 'आश्रयकी निकटतासे रंगे हुये स्फटिक-पाषाण जैसा है, अत्यंत तिरोभूत (ढंके हुये ) अपने स्वभावभावत्वसे जिसकी समस्त भेदज्ञानरूप ज्योति अस्त हो गई है ऐसा है, और महा अज्ञानसे जिसका हृदय स्वयं स्वतः ही विमोहित हैऐसा अप्रतिबुद्ध अज्ञानी जीव स्वपरका भेद न करके, उन अस्वभावभावोंको ही (जो अपने स्वभाव नहीं हैं ऐसे विभावोंको ही) अपना करता हुआ, पुद्गलद्रव्यको ‘यह मेरा है' इस प्रकार अनुभव करता है। (जैसे स्फटिकपाषाणमें अनेक प्रकारके वर्णों की निकटतासे अनेकवर्णरूपता दिखाई देती है, स्फटिकका निज श्वेत-निर्मलभाव दिखाई नहीं देता इसी प्रकार अज्ञानीको कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित हो रहा है -दिखाई नहीं देता इसलिये पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है।) ऐसे अज्ञानीको अब समझाया जा रहा है कि :-रे दुरात्मन् ! आत्माघात करने वाले! जैसे परम अविवेकपूर्वक खानेवाले हाथी आदि पशु सुंदर आहारको तृण सहित खा जाते हैं उसी प्रकार खाने के स्वभावको तू छोड़, छोड़। जिसने समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं और जो विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करने के लिये एक अद्वितीय ज्योति है, ऐसे सर्वज्ञज्ञानसे स्फुट (प्रगट) किये गये जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह अनुभव करता है कि 'यह पुद्गलद्रव्य मेरा है' ? क्योंकि किसी भी प्रकार से जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी 'नमकके पानी' इसप्रकार के अनुभूतिकी भाँति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि 'यह पुद्गलद्रव्य मेरा है'; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकारसे नहीं १ आश्रय = जिसमें स्फटिकमणि रखा हुआ हो वह वस्तु Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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