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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग यदा त्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेऽपि भगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्मन्यनादिबन्धवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते, तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वात् श्रद्धानमपि नोप्लवते, तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमवस्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानु-पपत्तिः। (मालिनी) कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम्। सततमनुभवामोऽनन्तचैतन्यचिहूं न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।। २० ।। आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। ऐसे साध्य आत्माकी सिद्धि की इसप्रकार उपपत्ति है। परंतु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबालगोपाल सबके अनुभवमें सदा स्वयं ही आने पर भी अनादि बंधके वश पर (द्रव्यों) के साथ एकत्वके निश्चयसे मूढ़-अज्ञानी जनको ‘जो यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभावसे, अज्ञातका श्रद्धान गधेके सिंगके श्रद्धान समान है, श्रद्धान भी उदित नहीं होता तब समस्त अन्यभावोंके भेदसे आत्मामें निःशंक स्थिर होने की असमर्थताके कारण आत्माका आचरण उदित न होनेसे आत्माको नहीं साध सकता। इसप्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी अन्यथा अनुपपत्ति है। भावार्थ:- साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही है, अन्य प्रकारसे नहीं। क्योंकि:-पहले तो आत्माको जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभवमें आता है सो मैं हूँ। इसकेबाद उसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपनेमें स्थिर हो। इस प्रकार सिद्धि होती है। किन्तु यदि जाने ही नहीं , तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता; और ऐसी स्थितिमें स्थिरता कहाँ करेगा ? इसलिये यह निश्चय है कि अन्य प्रकारसे सिद्धि नहीं होती। ___ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है: श्लोकार्थ:- आचार्य कहते हैं कि: [अनन्तचैतन्यचिहं] अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जिसका चिह्न है ऐसी [ इदम् आत्मज्योतिः] इस आत्मज्योतिका [ सततम् अनुभवामः ] हम निरंतर अनुभव करते हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [अन्यथा साध्य-सिद्धिः न खलु न खलु ] उसके अनुभवके बिना अन्य प्रकारसे साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं होती । यह आत्मज्योति ऐसी है कि [ कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम् ] जिसने किसी प्रकारसे त्रित्व अङ्गीकार किया है तथापि जो एकत्वसे च्युत नहीं हुई और [ अच्छम् उद्गच्छत् ] जो निर्मलतासे उदयको प्राप्त हो रही है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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