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________________ ३२ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते । तथान्तर्दृष्ट्या ज्ञायको भावो जीवो जीवस्यविकारहेतुरजीवः । केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकारहेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा इति। नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि अथ च सकलकालमेवास्खलन्तमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि। ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते। एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव। या त्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव। इति समस्तमेव निरवद्यम्। इसलिये इन नव तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इसीप्रकार अंतर्दृष्टि से देखा जाये तोः–ज्ञायक भाव जीव है और जीवके विकारका हेतु अजीव है; और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष जिनके लक्षण हैं ऐसे केवल जीव के विकार हैं और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष-ये विकारहेतु केवल अजीव हैं। ऐसे यह नव तत्त्व, जीवद्रव्यके स्वभावको छोड़कर, स्वयं और पर जिनके कारण हैं ऐसे एक द्रव्यकी पर्यायोंके रूपमें अनुभव करनेपर भूतार्थ हैं और सर्व कालमें अस्खलित एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिये इन तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इसप्रकार, यह एकत्वरूपसे प्रकाशित होता हुआ शुद्धनयरूपसे अनुभव किया जाता है । और जो यह अनुभूति है सो आत्मख्याति ( आत्माकी पहचान ) ही है, और जो आत्मख्याति है सो सम्यग्दर्शन ही है । इसप्रकार यह सर्व कथन निर्दोष है - बाधा रहित है। भावार्थ:- इन नव तत्त्वोंमें, शुद्धनयसे देखा जाये तो, जीव ही एक चैतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है, इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न नव तत्त्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जबतक इसप्रकार जीवतत्त्वकी जानकारी जीवको नहीं है तबतक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न भिन्न नव तत्त्वोंको मानता है । जीवपुद्गलकी बन्ध– पर्यांयरूप दृष्टिसे यह पदार्थ भिन्न भिन्न दिखाई देते हैं; किन्तु जब शुद्धनयसे जीवपुद्गलका निजस्वरूप भिन्न भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य, पाप आदि सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त - नैमित्तिक भावसे हुए थे इसलिये जब वह निमित्तनैमित्तिक भाव मिट गया तब जीव- पुद्गल भिन्न भिन्न होनेसे अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकती । वस्तु तो द्रव्य है, और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके साथ ही रहता है तथा निमित्त - नैमित्तिक भावका अभाव ही होता है, इसलिये शुद्धनयसे जीवको जानने से ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो सकती है। जबतक भिन्न भिन्न नव पदार्थोंको जाने, और शुद्धनयसे आत्माको न जाने तबतक पर्यायबुद्धि है । यहाँ, इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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