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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५९८ न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्य, ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाभेदात्। तर्हि किं कृतो लक्ष्यलक्षण विभाग: ? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः। प्रसिद्ध हि ज्ञानं, ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात; तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानन्तधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा। ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्यावलक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैक: खल्वात्मा। एतदर्थमेवात्रास्य ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः। ननु क्रमाक्रमप्रवृत्तानन्तधर्ममयस्यात्मनः कथं ज्ञानमात्रत्वम् ? [उत्तर:-] जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो उसे (अर्थात् जो लक्षणको नहीं जानता ऐसे अज्ञानी जनको) लक्ष्यकी प्रसिद्धि नहीं होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसी को लक्ष्यकी प्रसिद्धि होती है। (इसलिये अज्ञानीको पहले लक्षण बतलाते हैं और उसके बाद वह लक्ष्यको ग्रहण कर सकता है।) [प्रश्न:-] ऐसा कौन सा लक्ष्य है कि जो ज्ञानकी प्रसिद्धि के द्वारा उससे ( - ज्ञानसे) भिन्न प्रसिद्ध होता है ? [ उत्तर:-] ज्ञानसे भिन्न लक्ष्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान और आत्मामें द्रव्यपनेसे अभेद है। [प्रश्न:-] तब फिर लक्षण और लक्ष्यका विभाग किस लिये किया गया है ? उत्तर:-] प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्वके कारण लक्षण और लक्ष्यका विभाग किया गया है। ज्ञान प्रसिद्ध है, क्योंकि ज्ञानमात्रको स्वसंवेदनसे सिद्धपना है ( अर्थात् ज्ञान सर्व प्राणियोंको स्वसंवेदनरूप अनुभवमें आता है); वह प्रसिद्ध ऐसे ज्ञान के द्वारा प्रसाध्यमान, तद-अविनाभूत (-ज्ञानके साथ अविनाभावी संबंधवाला) अनंत धर्मोंका समुदायरूप मूर्ति आत्मा है। (ज्ञान प्रसिद्ध है; और ज्ञानके साथ जिनका अविनाभावी संबंध है ऐसे अनंत धर्मोंका समुदायस्वरूप आत्मा उस ज्ञान के द्वारा प्रसाध्यमान है।) इसलिये ज्ञानमात्रमें अचलितपनेसे स्थापित दृष्टि के द्वारा, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान, तद्-अविनाभूत (-ज्ञानके साथ अविनाभावी संबंधवाला) अनंतधर्मसूमह जो कुछ जितना लक्षित होता है, वह सब वास्तवमें एक आत्मा है। इसी कारणसे यहाँ आत्माका ज्ञानमात्रतासे व्यपदेश है। [प्रश्न:-] जिसमें क्रम और अक्रमसे प्रवर्तमान अनंत धर्म हैं ऐसे आत्माके ज्ञानमात्रता किसप्रकार है ? * प्रसाध्यमान = जो प्रसिद्ध किया जाता हो। (ज्ञान प्रसिद्ध है और आत्मा प्रसाध्यमान है।) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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