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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५८६ प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परभावेनासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १२। यदाऽनित्यज्ञानविशेषैः खण्डितनित्यज्ञानसामान्यो नाशमुपैति, तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति १३। यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा ज्ञानविशेषरूपेणानित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १४ । भवन्ति चात्र श्लोका: (शार्दूलविक्रीडित) बाह्याथैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तीभवद् विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति। यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुनदूंरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्ण समुन्मज्जति।। २४८ ।। करके अपना नाश करता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) परभावसे असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता। १२ । जब यह ज्ञानमात्र भाव अनित्य ज्ञानविशेषोंके द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य खंडित हुआ मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानसामान्यरूपसे नित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है-नष्ट नहीं होने देता। १३। __ और जब वह ज्ञानमात्र भाव नित्य ज्ञानसामान्यका ग्रहण करने के लिये अनित्य ज्ञानविशेषोंके त्यागके द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानके विशेषोंका त्याग करके अपने को नष्ट करता है). तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानविशेषरूपसे अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता। १४। (यहाँ तत्-अतत्के २ भंग, एक-अनेकके २ भंग, सत्-असत्के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे ८ भंग, और नित्य-अनित्यके २ भंग-इसप्रकार सब मिलकर १४ भंग हुए। इन चौदह भंगोंमें यह बताया है कि-एकांतसे ज्ञानमात्र आत्माका अभाव होता है और अनेकांतसे आत्मा जीवित रहता है; अर्थात् एकांतसे आत्मा जिस स्वरूप है उस स्वरूप नहीं समझा जाता, स्वरूपमें परिणमित नहीं होता, और अनेकांतसे वह वास्तविक स्वरूपसे समझा जाता है, स्वरूपमें परिणमित होता है।) यहाँ निम्न प्रकारसे (१४ भंगोंके कलशरूप ) १४ काव्य भी कहे जा रहे हैं: ( उनमें से पहले , प्रथम भंगका कलशरूप काव्य इसप्रकार है:-) श्लोकार्थ:- [ बाह्य-अथैः परिपीतम् ] बाह्य पदार्थों के द्वारा सम्पूर्णतया पिया Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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