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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग २७ (मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।। ४ ।। श्लोकार्थ:- [ उभय-नय-विरोध-ध्वंसिनि] निश्चय और व्यवहार- इन दो नयोंके विषयके भेदसे परस्पर विरोध है; उस विरोधका नाश करनेवाला [ स्यात्पद-अंके ] ' स्यात्' पदसे चिह्नित जो [ जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन ( वाणी) है उसमें [ ये रमन्ते ] जो पुरुष रमते हैं ( –प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं ) [ ते] वे [स्वयं] अपने आप ही (अन्य कारणके बिना) [ वान्तमोहाः] मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करके [ उच्चः परं ज्योति: समयसारं] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको [ सपदि ईक्षन्ते एव] तत्काल ही देखते हैं। वह समयसाररूप शुद्धआत्मा [अनवम् ] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ; किन्तु पहले कर्मोंसे आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है। और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकांतरूप कुनयके पक्षसे खंडित नहीं होता, निर्बाध है। भावार्थ:- जिनवचन (जिनवाणी ) स्याद्वादरूप है। जहाँ दो नयोंके विषयका विरोध है-जैसे कि जो सत्प होता है वह असत्प नहीं होता, जो एक होता है वह अनेक नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता, जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयों के विषयोमें विरोध है-वहाँ जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-असत्प, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिसप्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कह कर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता। जिनवचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों नयोंमें, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयको मुख्य करके उसे निश्चय कहते हैं और अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयको गौण करके व्यवहार कहते हैं। -ऐसे जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ प्राप्त कर लेते हैं; अन्य सर्वथा-एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा एकांत पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना करते हैं-जो असत्यार्थ है, बाधासहित मिथ्या- दृष्टि है।। ४।। इसप्रकार इन बारह गाथाओंमें पीठिका ( भूमिका) है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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