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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५६३ एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टि:, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवाङ्गपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मो, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः। अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिव्याप्तिं च परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञानचारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धंज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम्। शंका करनेयोग्य नहीं है), क्योंकि जीव स्वयं ही ज्ञान है।ऐसा (ज्ञान जीवसे अभिन्न) होनेसे , ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) है, ज्ञान ही प्रव्रज्या ( दीक्षा, निश्चयचारित्र) हैइसप्रकार ज्ञानका जीवपर्यायोंके साथ भी अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखना (अर्थात् निश्चय द्वारा सिद्ध हुआ समझना-अनुभव करना) चाहिये।। अब, इसप्रकार सर्व परद्रव्यों के साथ व्यतिरेकके द्वारा और सर्व दर्शनादि जीवस्वभावोंके साथ अव्यतिरेक के द्वारा अतिव्याप्तिको और अव्याप्तिको दूर करता हुआ, अनादि विभ्रम जिसका मूल है ऐसे धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभअशुभरूप) परसमयको दूर करके, स्वयं ही प्रव्रज्यारूपको प्राप्त करके ( अर्थात् स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप दीक्षाभावको प्राप्त करके), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको प्राप्त करके, मोक्षमार्गको अपनेमें ही परिणत करके, जिसने संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावको प्राप्त किया है ऐसा, त्याग-ग्रहणसे रहित, साक्षात् समयसारभूत , परमार्थरूप शुद्ध-ज्ञान एक अवस्थित ( -निश्चल) देखना (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनसे अनुभव करना) चाहिये। भावार्थ:-यहाँ ज्ञानको सर्व परद्रव्योंसे भिन्न और अपनी पर्यायोंसे अभिन्न बताया है, इसलिये अतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामक लक्षण दोष दूर हो गये। आत्माका लक्षण उपयोग है, और उपयोगमें ज्ञान प्रधान है; वह (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है इसलिये वह अतिव्याप्तिवाला नहीं है, और अपनी सर्व अवस्थाओंमें है इसलिये अव्याप्तिवाला नहीं है। इसप्रकार ज्ञानलक्षण कहनेसे अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोष नहीं आते। यहाँ ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका अधिकार है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसे ही आत्मा सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अनुभवगोचर होता है। यद्यपि आत्मामें अनंत धर्म हैं, तथापि उनमेंसे कितने ही तो छद्मस्थके अनुभवगोचर ही नहीं है;उन धर्मों के कहनेसे छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको कैसे पहिचान सकता है ? और कितने ही धर्म अनुभवगोचर है, परंतु उनमेंसे कितने ही तो-अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तो-अन्य द्रव्योंके साथ सामान्य अर्थात् समान ही हैं इसलियेउनके कहनेसे पृथक् आत्मा नहीं जाना जा Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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