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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५४३ नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १। नाहं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये । नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३। नाहं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४। नाहं केवलज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५। नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६। नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये । नाहमवधिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८। नाहं केवलदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९। नाहं निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०। नाहं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि-अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान–श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है। २३०। (अब टीकामें समस्त कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:-) मैं (ज्ञानी होनेसे ) मतिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ अर्थात् एकाग्रतया अनुभव करता हूँ। ( यहाँ 'चेतना' अर्थात् अनुभव करना, वेदना, भोगना। 'सं' उपसर्ग लगनेसे , 'संचेतना' अर्थात् 'एकाग्रतया अनुभव' ऐसा अर्थ यहाँ समस्त पाठोंमें समझना चाहिये।) १। मैं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन–अनुभव करता हूँ। २। मैं अवधिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३। मैं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४। मैं केवलज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५। मैं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६। मैं अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७। मैं अवधिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८। मैं केवलदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९। मैं निद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०। मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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