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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५३८ (आर्या) मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। २२७ ।। इत्यालोचनाकल्प: समाप्तः। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति २। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च कायेन चेति ३। अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- (निश्चयचारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि-) [ मोहविलासविजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म] मोहके विलाससे फैला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता हुआ) कर्म [ सकलम् आलोच्य ] उस सभी की आलोचना करके (-उन सर्व कर्मोकी आलोचना करके-) [ निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म ( अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरंतर वर्त रहा हूँ। भावार्थ:- वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि पहले जो कर्म बाँधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका कर्ता नहीं, मैं तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप प्रवृतिके दारा मैं इस उदयागत कर्म को देखनेजाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है। २२७। इसप्रकार आलोचनाकल्प समाप्त हुआ। ( अब टीकामें प्रत्याख्यानकल्प अर्थात् प्रत्याख्यानकी विधि कहते हैं:(प्रत्याख्यान करने वाला कहता है कि:-) मैं ( भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१। मैं ( भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे। २। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा कायसे। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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