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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५२३ ( शार्दूलविक्रीडित) रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं। विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम्।। २२३ ।। उसीप्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेय को जानने का ही है। ऐसा वस्तु स्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता। ज्ञेयोंको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी-विकारी होता है जो कि अज्ञान है। इसलिये आचार्यदेवने सोच किया है कि-'वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है, फिर भी यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमित होता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ?' इसप्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तबतक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है। २२२। अब आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः ] जिनका तेज रागद्वेषरूपी विभावसे रहित है, [ नित्यं स्वभाव-स्पृशः ] जो सदा (अपने चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावको स्पर्श करनेवाले हैं, [ पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकला:] जो भूत कालके तथा भविष्य कालके समस्त कर्मोंसे रहित है और [ तदात्व-उदयात्-मिन्नाः] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न है, [ दूर-आरूढ-चरित्र-वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे (-ऐसे ज्ञानी-) अति प्रबल चारित्रके वैभवके बलसे ज्ञानकी संचेतनाका अनुभव करते हैं- [चञ्चत्-चिद्-अर्चिर्मयीं] जो ज्ञान-चेतना चमकती हुई चैतन्यज्योतिमय है और [ स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम् ] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रससे समस्त लोकको सींचा है। भावार्थ:-जिनका रागद्वेष दूर हो गया, अपने चैतन्यस्वभावको जिन्होंने अंगीकार किया और अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मका ममत्व दूर हो गया है ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्योंसे अलग होकर चारित्र अंगीकार करते हैं। उस चारित्रके बलसे, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न जो अपनी चैतन्यकी परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं। यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिये कि: -जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और स्वसंवेदनप्रमाणसे जानता है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है; Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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