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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५१८ असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फुससु मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं।। ३७९ ।। असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं ।। ३८० ।। असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं ।। ३८१ ।। एयं तु जाणिऊणं उवसमं णेव गच्छदे मूढो। णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।३८२ ।। निन्दितसंस्तुतवचनानि पुद्गलाः परिणमन्ति बहुकानि। तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति च पुनरहं भणितः।। ३७३ ।। शुभ या अशुभ जो स्पर्श वो 'तू स्पर्श मुझको' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कायगोचर स्पर्शका ।। ३७९ ।। शुभ या अशुभ गुण कोई भी 'तू जान मुझको' नहिं कहे। अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर गुण करे ।। ३८०।। शुभ या अशुभ जो द्रव्य वो 'तू जान मुझको' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर द्रव्य करे ।। ३८१ ।। यह जान कर भी मूढ जीव पावे नहिं उपशम अरे! शिव बुद्धिको पाया नहि वो पर ग्रहण करना चहे।। ३८२।। गाथार्थ:- [ बहुकानि] बहुत प्रकारके [ निन्दितसंस्तुतवचनानि ] निंदाके और स्तुतिके वचनरूप [पुद्गलाः ] पुद्गल [ परिणमन्ति] परिणमित होते हैं; [ तानि श्रुत्वा पुनः ] उन्हें सुनकर अज्ञानी जीव [ अहं भणितः ] 'मुझसे कहा' ऐसा मानकर [ रुष्यति तुष्यति च] रोष और संतोष करता है (अर्थात् क्रोध करता है और प्रसन्न होता है)। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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