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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५०५ पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना परिणमयन् ज्ञानदर्शनगुण निर्भरपरापोहनात्मकस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमान: पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मन: स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते। एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायाणां निश्चयव्यवहारप्रकारः। एवमेवान्येषां सर्वेषामपि पर्यायाणां द्रष्टव्यः । और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण पर-अपोहनात्मक (परके त्यागस्वरूप) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे अपने ( - पुद्गलादिके — ) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको, अपने ( - चेतयिताके - ) स्वभावसे अपोहता है अर्थात् त्याग करता है - इसप्रकार व्यवहार किया जाता है। इसप्रकार यह, आत्माके ज्ञान-दर्शन- चारित्र पर्यायोंका निश्चय - व्यवहार प्रकार है। इसीप्रकार अन्य समस्त पर्यायोंका भी निश्चय - व्यवहार प्रकार समझना चाहिये। भावार्थ:-शुद्धनयसे आत्माका एक चेतनामात्र स्वभाव है। उसके परिणाम जानना, देखना, श्रद्धा करना, निवृत्त होना इत्यादि है । वहाँ निश्चयनयसे विचार किया जाये तो आत्माको परद्रव्यका ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, दर्शक नहीं कहा जा सकता, श्रद्धान करनेवाला नहीं कहा जा सकता, त्याग करनेवाला नहीं कहा जा सकता; क्योंकि परद्रव्यके और आत्माके निश्चयसे कोई भी संबंध नहीं है। जो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भाव हैं, वे स्वयं ही हैं; भाव-भावकका भेद कहना वह भी व्यवहार है । निश्चयसे भाव और भाव करनेवाले भेद नहीं हैं। अब व्यवहारनयके सम्बन्धमें । व्यवहारनयसे आत्माको परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान करनेवाला, त्याग करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि परद्रव्य और आत्माके निमित्तनैमित्तिकभाव हैं। ज्ञानादि भावोंका परद्रव्य निमित्त होता है इसलिये व्यवहारीजन कहतें हैं कि-आत्मा परद्रव्य को जानता है, परद्रव्यको देखता है, परद्रव्यका श्रद्धान करता है, परद्रव्यका त्याग करता है 1 इसप्रकार निश्चय-व्यवहारके प्रकारको जानकर यथावत् ( जैसा कहा है उसीप्रकार ) श्रद्धान करना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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