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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ५०१ अपि च सेटिकात्र तावच्छेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुड्यादिपरद्रव्यम्। अथात्र कुड्यादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका कुड्यादेर्भवन्ती कुड्यादिरेव भवेत्, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति सेटिका - कुड्यादेः। यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति। ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः। (इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि: ‘आत्मा परद्रव्यको देखता है अथवा श्रद्धा करता है'-यह व्यवहारकथन है; 'आत्मा अपनेको देखता है अथवा श्रद्धा करता है'-इस कथन में भी स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार है; 'दर्शक दर्शक ही है, –यह निश्चय है।) और (जिसप्रकार ज्ञायक तथा दर्शकके सम्बन्धमें दृष्टांत-दासतसे कहा है) इसीप्रकार अपोहक (त्याग करनेवाले) के सम्बन्धमें कहा जाता है:-इस जगतमें कलई है वह श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलई का श्वैत्य है (अर्थात् कलई द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ है)। जिसका जो होता है, 'अब श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत की जाने योग्य जो दीवारआदि परद्रव्य की है या नहीं?'-इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक संबंधका यहाँ विचार किया जाता है:- यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो, सो पहले यह विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'-ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत (विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिको हो तो कलई वह दीवार-आदि ही होना चाहिये ( अर्थात् कलई दीवार-आदि स्वरूप ही होना चाहिये); ऐसा होने पर, कलई के स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा परंतु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया गया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) कलई दीवार-आदि की नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) यदि कलई दीवारआदिकी नहीं तो कलई किसकी है ? कलई की ही कलई है। (इस) कलई से भिन्न ऐसी दूसरी कौन सी कलई है जिसकी (यह ) कलई है ? (इस) कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही है। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ साध्य नहीं है। तब फिर कलई किसी की नहीं है, कलई कलई ही है-यह निश्चय है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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