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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार आस्तां तावद्वन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते; यतो ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कैश्चिद्धमैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः। परमार्थतस्त्वेकद्रव्य-निष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किञ्चिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैक: शुद्धः। टीका :- इस ज्ञायक आत्माको बंधपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी विद्यमान नहीं है; क्योंकि अनंत धर्मोंवाले एक धर्मीमें जो निष्णात नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको, धर्मीको बतलानेवाले कितने ही धर्मों के द्वारा, उपदेश करते हुए आचार्योंका-यद्यपि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है तथापि नामसे भेद करके- व्यवहारमात्रसे ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। किन्तु परमार्थसे देखा जाये तो अनंत पर्यायोंको एक द्रव्य पी गया होनेसे जो एक है ऐसे कुछ-मिले हुए आस्वादवाले, अभेद , एक स्वभावी ( तत्त्व) - का अनुभव करनेवालेको दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, एक शुद्ध ज्ञायक ही है। भावार्थ :- इस शुद्ध आत्माके कर्मबंधके निमित्तसे अशुद्धता होती है, यह बात तो दूर ही रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भी भेद नहीं है; क्योंकि वस्तु अनंतधर्मरूप एकधर्मी है। परंतु व्यवहारीजन धर्मोको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते, इसलिये वस्तुके किन्हीं असाधारण धर्मोंको उपदेशमें लेकर अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोंके नामरूप भेदको उत्पन्न करके ऐसा उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। इसप्रकार अभेदमें भेद किया जाता है, इसलिये वह व्यवहार है। यदि परमार्थसे विचार किया जाये तो एक द्रव्य अनंत पर्यायोंको अभेदरूपसे पी कर बैठा है, इसलिये उसमें भेद नहीं है। यहाँ कोई कह सकता है कि पर्याय भी द्रव्यके ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फिर उन्हें व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है :- यह ठीक है, किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान करके उपदेश दिया है। अभेददृष्टिमें भेदको गौण कहनेसे ही अभेद भलीभाँति मालूम हो सकता है। इसलिये भेदको गौण करके उसे व्यवहार कहा है। यहाँ यह अभिप्राय है कि भेददृष्टिमें भी निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागीके विकल्प होते रहते हैं; इसलिये जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते वहाँ तक भेदको गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होनेके बाद भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है, वहाँ नयका अवलंबन ही नहीं रहता। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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