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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ४७८ ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात्। इसलिये, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षासे ज्ञानस्वभावसे अवस्थित होनेपर, कर्मसे उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावोंके ज्ञानके समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे शून्य होनेसे , परको आत्माके रूपमें जाता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करता है (-अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसको करता है) इसलिये, उसके कर्तृत्वको स्वीकार करना ( अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कथंचित कर्ता है); वह भी तबतक ही जबतक भेदविज्ञानके प्रारम्भसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) होनेके कारण आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव), विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामसे परिणमित होता हुआ (-ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसरूप ही परिणमित होता हुआ), मात्र ज्ञातृत्वके कारण साक्षात् अकर्ता हो। भावार्थ:-कितने ही जैन मुनि भी स्याद्वाद-वाणीको भली भाँति न समझकर सर्वथा एकांतका अभिप्राय करते हैं और विवक्षा बदलकर यह कहते हैं कि-"आत्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्मप्रकृतिका उदय ही भावकर्मको करता है; अज्ञान, ज्ञान, सोना, जागना, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतिओंमें भ्रमण-इन सबको , तथा जो कुछ शुभ-अशुभ भाव है उन सबको कर्म ही करता है; जीव तो अकर्ता है।" और वे मुनि शास्त्रका भी ऐसा ही अर्थ करते हैं कि-“वेदके उदयसे स्त्री-पुरुषका विकार होता है और उपघात तथा परघात प्रकृतिके उदयसे परस्पर घात होता है।” इसप्रकार, जैसे सांख्यमतावलम्बी सब कुछ प्रकृतिका ही कार्य मानते हैं और पुरुषको अकर्ता मानते हैं उसीप्रकार, अपनी बुद्धिके दोषसे इन मुनियोंकी भी ऐसी ही एकांतिक मान्यता हुई। इसलिये जिनवाणी तो स्याद्वाद रूप है, अतः सर्वथा एकांतको माननेवाले उन मुनियों पर जिनवाणीका कोप अवश्य होता है। जिनवाणीके कोपके भयसे यदि वे विवक्षाको बदलकर यह कहें कि-"भावकर्मका कर्ता कर्म है और अपनी आत्माका ( अर्थात् अपनेको) कर्ता आत्मा है; इसप्रकार हम आत्माको कथंचित् कर्ता कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;" तो उनका यह कथन भी मिथ्या आत्मा द्रव्यसे नित्य है. असंख्यात प्रदेशी है लोकपरिमाण है इसलिये उसमें तो कुछ नवीन करना नहीं है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा तो अकर्ता ही रहा! तब फिर वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्व ही है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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