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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ४७० कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं। कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।। ३३२ ।। कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं। कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव।। ३३३ ।। कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्डमहो चावि तिरियलोयं च। कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि।। ३३४ ।। [ उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये] जिनकी बुद्धि तीव्र मोहसे मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकोंके ज्ञानकी संशुद्धिके लिये [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] ( निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) वस्तुस्थिति कही जाती है- [ स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्धविजया ] जिस वस्तुस्थितिने स्याद्वादके प्रतिबंध द्वारा विजय प्राप्त की है ( अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमसे निर्बाधतया सिद्ध होती है। भावार्थ:-कोई एकांतवादी सर्वथा एकांततः कर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं। उनपर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वादसे वस्तुस्थितिको निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्माको कथंचित् कर्ता कहती है। आत्माको अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियोंकी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वसे ढक गयी है; उनके मिथ्यात्वको दूर करनेके लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है वह, निम्नलिखित गाथाओंमें कहते हैं। २०४। 'आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्ता भी है' इस अर्थकी गाथायें अब कहते हैं: “कर्महि करें अज्ञानि त्योंही ज्ञानि भी कर्महि करे । कर्महि सुलाते जीवको , त्यों कर्महि जगृत करें ।। ३३२।। अरु कर्म ही करते सुखी, कर्महि दुखी जीवको करे। कर्महि करे मिथ्यात्वि त्योंहि असंयमी कर्महि करे ।। ३३३ ।। कर्महि भ्रमावे ऊर्ध्व लोक रु, अधः अरु तिर्यक् विर्षे । अरु कुछ भी जो शुभ या अशुभ उन सर्वको कर्महि करे ।। ३३४।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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