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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार । ४५९ यथात्र लोके दृष्टिदृश्यादत्यन्तविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्व केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टुत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति। टीका:-जैसे इस जगतमें नेत्र दृश्य पदार्थसे अत्यंत भिन्नताके कारण उसे करने–वेदने (भोगने ) में असमर्थ होनेसे , दृश्य पदार्थको न तो करता है और न भोगता है-यदि ऐसा हो तो अग्निको देखने, संधु-क्षणकी (संधूकण; अग्नि जलानेवाला पदार्थ; अग्नि चेतानेवाली वस्तु।) भाँति, अपनेको ( नेत्रको) अग्निका कर्तृत्व (जलाना), और लोहेके गोलेकी भाँति अपने ( नेत्रको) अग्निका अनुभव दुर्निवार होना चाहिए ( अर्थात् यदि नेत्र दृश्य पदार्थ को करता और भोगता हो तो नेत्रके द्वारा अग्नि जलनी चाहिये और नेत्रको अग्निकी उष्णताका अनुभव अवश्य होना चाहिये; किन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये नेत्र दृश्य पदार्थका कर्ता-भोक्ता नहीं है) - किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभाववाला होनेसे वह (नेत्र) सबको मात्र देखता ही है; इसीप्रकार ज्ञान भी, स्वयं ( नेत्रकी भाँति) देखनेवाला होनेसे, कर्मसे अत्यंत भिन्नता के कारण निश्चयसे उसके करने वेदने (भोगने ) में असमर्थ होनेसे. कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, किन्तु केवल ज्ञानमात्रस्वभाववाला (जाननेका स्वभाववाला होनेसे कर्मके बंधको तथा मोक्षको, और कर्मके उदयको तथा निर्जराको मात्र जानता ही है। भावार्थ:-ज्ञानका स्वभाव नेत्रकी भाँति दूरसे जानना है; इसलिये ज्ञानके कर्तृत्व-भोगतृत्व नहीं है। कर्तृत्व-भोगतृत्व मानना अज्ञान है। यहाँ कोई पूछता है कि-" ऐसा तो केवलज्ञान है। और शेष तो जबतक मोहकर्मका उदय है तबतक तो सुखदुःखरागादिरूप परिणमन होता ही है, तथा जबतक दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यांतरायका उदय है तबतक अदर्शन, अज्ञान तथा असमर्थता होती ही है; तब फिर केवलज्ञान होनेसे पूर्व ज्ञातादृष्टापन कैसे कहा जा सकता है ?" उसका समाधान:पहलेसे ही यह कहा जा रहा है कि जो स्वतंत्रतया करता-भोगता है, वह परमार्थ से कर्ता–भोक्ता कहलाता है। इसलिये जहाँ मिथ्यादृष्टिरूप अज्ञानका अभाव हुआ वहाँ परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव हो जाता है और तब जीव ज्ञानी होता हुआ स्वतंत्रतया किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी बलवत्तासे जो कार्य होता है वह परमार्थदृष्टिसे उसका कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता। और उस कार्यके निमित्तसे कुछ नवीन कर्मरज लगती भी है तो भी उसे यहाँ बंधमें नहीं गिना जाता। मिथ्यात्व है वही संसार है। मिथ्यात्वके जानेके बाद संसारका Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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