SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभाव विरक्तत्वादवेदक एव । ( वसन्ततिलका) ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्। जानन्परं करणवेदनयोरभावा च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव।। १९८ ।। ण विकुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।। ३१९ ।। इसलिये, ज्ञानी प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे अवेदक ही है। भावार्थ:-जो जिससे विरक्त होता है उसे वह अपने वश तो भोगता नहीं है, और यदि परवश होकर भोगता है तो वह परमार्थ से भोक्ता नहीं कहलाता। इस न्याय से ज्ञानी-जो कि प्रकृतिस्वभावको ( कर्मोदय) को अपना न जाननेसे उससे विरक्त है वह स्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावको नहीं भोगता, और उदयकी बलवत्तासे परवश होता हुआ निर्बलतासे भोगता है तो उसे परमार्थ से भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है । किन्तु व्यवहारका तो यहाँ शुद्धनयके कथनमें अधिकार ही नहीं है; इसलिये ज्ञानी अभोक्ता ही है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ :- [ ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी कर्मको न तो करता है और न भोगता है, [ तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह कर्मके स्वभावको मात्र जानता ही है । [ परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [ करणवेदनयोः अभावात् ] करने और भोगने के अभाव के कारण [ शुद्ध-स्वभावनियतः सः हिमुक्तः एव ] शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है। भावार्थ:-ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता - भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है। कर्म उदयमें आता भी है, फिर भी ज्ञानीका क्या कर सकता है ? जबतक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; किन्तु ज्ञानी क्रमशः शक्ति बढ़ाकर अन्तमें कर्म का समूल नाश करेगा ही । १९८ । अब इसी अर्थ को पुन: दृढ़ करते हैं: ४५७ करता नहीं, नहिं वेदता, ज्ञानी करम बहुभाँतिको । बस जानता ये बंध त्यों ही कर्मफल शुभ अशुभको ।। ३१९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy