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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ४५३ यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति, तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति। (अनुष्टुभ् ) भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः। अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः।। १९६ ।। अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि। णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि।। ३१६ ।। और जब यही आत्मा, (अपने और परके भिन्न भिन्न) निश्चित् स्वलक्षणोंके ज्ञानके (भेदज्ञानके) कारण, प्रकृतिके स्वभावको-जो कि अपनेको बंधका निमित्त है उसकोछोड़ता है, तब स्वपरके विभागज्ञानसे (भेदज्ञानसे) ज्ञायक है, स्वपरके विभागदर्शनसे ( भेददर्शनसे) दर्शक है और स्वपरकी विभागपरिणतिसे (भेदपरिणतिसे) संयत है; और और तभी स्वपरके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है। भावार्थ:-जबतक यह आत्मा स्वपरके लक्षणको नहीं जानता तबतक भेदज्ञानके अभावके कारण कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर परिणमित होता है; इसप्रकार मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बंध करता है। और जब आत्माको भेदज्ञान होता है तब वह कर्ता नहीं होता, इसलिये कर्मका बंध नहीं करता, ज्ञातादृष्टारूपसे परिणमित होता है। इसीप्रकार भोक्तृत्व भी आत्माका स्वभाव नहीं है' इस अर्थका , आगामी गाथाका सुचक श्लोक कहते हैं : श्लोकार्थ:- [ कर्तृत्ववत् ] कतृत्वकी भाँति [ भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभाव: स्मृतः न] भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है। [ अज्ञानात् एव अयं भोक्ता] यह अज्ञानसे ही भोक्ता है, [ तद्-अभावात् अवेदक:] अज्ञानका अभाव होनेपर यह अभोक्ता है। १९६ । अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं: अज्ञानी स्थित प्रकृती स्वभाव सु, कर्मफल को वेदता। अरु ज्ञानी तो जाने उदयगत कर्मफल, नहीं भोगता ।। ३१६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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