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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वम्। अत एकत्वस्य न सुलभत्वम्। अत एवैतदुपदर्श्यते तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।। ५ ।। तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन । यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ।। ५ ।। १३ जाननेवालोंकी संगति-सेवा न करनेसे, न तो पहले कभी सुना है, न परिचयमें आया है और न कभी अनुभवमें आया है, इसलिये भिन्न आत्माका एकत्व सुलभ नहीं है। भावार्थ :- इस लोकमें सर्व जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं; और उस दाहका इलाज ( उपाय ) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं। इसप्रकार काम तथा भोगकी कथा तो अनंतबार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया इसलिये वह सुलभ है । किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी कथाका ज्ञान अपनेको अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया इसलिये उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है ।। अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते हैं : दर्शाउँ एक विभक्तको आत्मातने निज विभवसे । 9 दर्शाउँ तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ।। ५॥ गाथार्थ :- [ तम् ] उस [ एकत्वविभक्त ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [ आत्मनः ] आत्माके [ स्वविभवेन ] निज वैभव से [ दर्शये ] दिखाता हूँ; [ यदि ] यदि मैं [ दर्शयेयं ] दिखाऊँ तो [ प्रमाणं ] प्रमाण ( स्वीकार) करना, [ स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [ छलं ] छल [ न ] नहीं [ गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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