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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार ४३१ पश्यामि। अथवा-न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यन्तं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो दृङ्मात्रो भावोऽस्मि। अपि च-ज्ञातारमात्मानं गृहामि। यत्किल गृहामि तज्जानाम्येव; जानन्नेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानन्तमेव जानामि। अथवा-न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानन्तं जानामि; किन्तु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि। देखता हूँ। अथवा-नहीं देखता; न देखते हुए को देखता हूँ, न देखते हुए के द्वारा देखता हूँ, न देखते हुएके लिये देखता हूँ, न देखते हुए से देखता हूँ, न देखते हुए में देखता हूँ, न देखत हुएको देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ। और इसीप्रकार-मैं जाननेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ, ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'जानता ही हूँ'; जानता हुआ ही जानता हूँ, जानते हुए के द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुए के लिये ही जानता हूँ, जानते हुए से ही जानता हूँ, जानते हुए में ही जानता हूँ, जानते हुए को ही जानता हूँ। अथवा-नहीं जानता; न जानते हुए को जानता हूँ, नहीं जानते हुए के द्वारा जानता हूँ, न जानते हुए के लिये जानता हूँ, न जानते हुए से जानता हूँ, नजानते हुए में जानता हूँ, न जानते हुए को जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध ज्ञप्ति (जाननक्रिया) मात्रभाव हूँ। (इसप्रकार देखनेवाले आत्माको तथा जाननेवाले आत्माको कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकोंके भेदपूर्वक ग्रहण करके, तत्पश्चात् कारकभेदोंका निषेध करके आत्माको अर्थात् अपनेको दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र भावरूप अनुभव करना चाहिये अर्थात् अभेदरूपसे अनुभव करना चाहिये। (भावार्थ:-इन तीन गाथाओंमें, प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करनेको कहा है। ‘ग्रहण करना' अर्थात् किसी अन्य वस्तुको ग्रहण करना अथवा लेना नहीं; किन्तु चेतनाका अनुभव करना ही आत्माका ‘ग्रहण करना' है। पहली गाथामें सामान्य चेतनाका अनुभव कराया गया है। वहाँ, अनुभव करनेवाला, जिसका अनुभव किया जाता है वह, और जिसके द्वारा अनुभव किया जाता है वह इत्यादि कारकभेदरूपसे आत्माको कहकर, अभेदविवक्षामें कारकभेदका निषेध करके, आत्माको एक शुद्ध चैतन्यमात्र कहा गया है। अब इन दो गाथाओंमें दृष्टा तथा ज्ञाताका अनुभव कराया है, क्योंकि चेतनासामान्य दर्शनज्ञानविशेषोंका उल्लंघन नहीं करती। यहाँ भी, छह कारकरूप भेद-अनुभवन कराके, और तत्पश्चात् अभेद-अनुभवनकी अपेक्षासे कारकभेद दूर कराके , दृष्टाज्ञातामात्रका अनुभव कराया है।) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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