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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ४२८ प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः। अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ।। २९७ ।। यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवहियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यन्तं मत्तो भिन्नाः। ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृहामि। यत्किल गृहामि तचेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये। अथवा- न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाचेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि। के ग्रहण प्रज्ञासे नियत, चेतक है सो ही मैं हि हूँ। अवशेष जो सब भाव है, मेरे से पर ही जानना ।। २९७।। गाथार्थ:- [ प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [ गृहीतव्यः ] ( आत्माको ) इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि [ यः चेतयिता] जो चेतनवाला (चेतनस्वरूप आत्मा) है [ सः तु] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [ अहं ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ ते] वे [ मम पराः ] मुझसे पर है [ इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये। टीका:-नियत स्वलक्षणका अवलंबन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न भिन्न किया गया जो चेतक (-चेतनेवाला, चैतन्यस्वरूप आत्मा) है सो यह मैं हूँ ; और अन्य स्वलक्षणोंसे लक्ष्य ( अर्थात् चैतन्यलक्षणके अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य ) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूपी व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यंत भिन्न है। इसलिये मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपने में से ही, अपने में ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ। आत्माकी, चेतना ही एक क्रिया है इसलिये, 'मैं ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'मैं चेतता ही हूँ'; चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते हुए द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुए के लिये ही चेतता हूँ, चेतते हुए से ही चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको ही चेतता हूँ। अथवा-न तो चेतता हूँ; न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेतता हूँ, न चेततेके लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए में चेतता हूँ, न चेतते हुयेको चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (-चैतन्यमात्र) भाव हूँ। भावार्थ:-प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया वह चेतक मैं हूँ और शेष भाव मुझसे पर हैं; इसलिये (अभिन्न छह कारकोंसे) मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही , मुझसे ही, मुझमें ही, मुझे ही ग्रहण करता हूँ। ‘ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'चेतता Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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