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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार अथैतद्वाध्यते एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुंदरो लोगे। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।३।। एकत्वनिश्चयगतः समयः सर्वत्र सुन्दरो लोके। बन्धकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति।।३ ।। समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते, समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः। ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोकेयेयावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि पररूपसे एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ ‘परसमय' है, इसप्रकार प्रतीति की जाती है। इसप्रकार जीव नामक पदार्थकी स्वसमय और परसमयरूप द्विविधता प्रगट होती है। भावार्थ :-जीव नामक वस्तुको पदार्थ कहा है। 'जीव' इसप्रकार अक्षरोंका समूह 'पद' है और उस पदसे जो द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपता निश्चित की जाये वह पदार्थ है। यह जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनंतधर्मस्वरूप द्रव्य है, द्रव्य होनेसे वस्तु है, गुणपर्यायवान है, उस का स्वपरप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है, और वह (जीवपदार्थ) आकाशादिसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है, तथा अन्य द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रमें रहनेपर भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है। जब वह अपने स्वभावमें स्थित हो तब स्वसमय है, और परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप होकर रहे तब परसमय है। इसप्रकार जीवके द्विविधता आती है।। अब, समयकी द्विविधतामें आचार्य बाधा बतलाते हैं: एकत्व-निश्चय गत समय, सर्वत्र सुंदर लोकमें। उससे बने बंधनकथा, जु विरोधिनी एकत्वमें।।३।। गाथार्थ:- [ एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वनिश्चयको प्राप्त जो [ समयः ] समय है वह [ लोके] लोकमें [ सर्वत्र] सब जगह [ सुन्दर:] सुंदर है [ तेन] इसलिये [एकत्वे ] एकत्वमें [ बन्धकथा] दूसरेके साथ बंधकी कथा [ विसंवादिनी ] विसंवादविरोध करनेवाली [भवति ] है। टीका :- यहाँ 'समय' शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात एकीभावसे ( एकत्वपूर्वक) अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है। इसलिये धर्म-अधर्म-आकाशकाल-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमें सर्वत्र जो कुछ जितने जितने पदार्थ हैं Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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