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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates बंध अधिकार स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद्व्यवसाय:, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भाव:, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः। ( शार्दूलविक्रीडित ) सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।। १७३ ।। ३९७ टीका:-स्व-परका अविवेक हो ( स्व-परका भेदज्ञान न हो ) तब जीवकी 'अध्यवसितिमात्र अध्यवसान है; और वही ( जिसे अध्यवसान कहा है वही ) बोधनमात्रत्व बुद्धि है, 'व्यवसानमात्रत्वसे व्यवसाय है, 'मननमात्रत्वसे मति है, विज्ञप्तिमात्रत्वसे विज्ञान है, चेतनामात्रत्वसे चित्त है, चेतनना भवनमात्रत्वसे भाव है, चेतनके परिणमनमात्रत्वसे परिणाम है। ( इसप्रकार यह सब शब्द एकार्थवाची हैं। ) भावार्थ:-यह जो बुद्धि आदि आठ नाम कहे गये हैं वे सब चेतन आत्माके परिणाम हैं। जबतक स्वपरका भेदज्ञान न हो तबतक जीवके जो अपने और परके एकत्व की निश्चयरूप परिणति पाई जाती है उसे बुद्धि आदि आठ नामोंसे कहा जाता है। 'अध्यवसान त्यागनेयोग्य कहें है इससे ऐसा ज्ञात होता है कि व्यवहारका त्याग और निश्चयका ग्रहण कराया है' - इस अर्थका एवं आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं: श्लोकार्थः-आचार्यदेव कहते हैं कि:- [ सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं [ अखिलं ] वे सब (अध्यवसान ) [ जिनैः] जिनेन्द्र भगवानने [ एवम् ] पूर्वोक्त रीतिसे [ त्याज्यं उक्तं ] त्यागनेयोग्य कहे हैं [ तत् ] इसलिये [ मन्ये ] हम यह मानते हैं कि [ अन्य - आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है । ' [ तत् ] तब फिर, [ अमी सन्तः] यह सत्पुरुष [ एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीकार करके [ शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें ( - आत्मस्वरूपमें ) [ धृतिम् किं न बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ? १। अध्यवसिति = (एकमें दूसरे की मान्यतापूर्वक ) परिणति; ( मिथ्या) निश्चिति; ( मिथ्या ) निश्चय होना । २। व्यवसान = काममें लगे रहना; उद्यमी होना; निश्चय होना । ३ । मनन = मानना; जानना । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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