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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बंध अधिकार ३८९ बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिकत्वात्। अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः। एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।। २६६ ।। आपतित कालप्रेरित उड़ते हुए जीवकी भाँति, बाह्यवस्तु-जो कि बंधके कारणका कारण है वह-बंधका कारण न होने से, बाह्यवस्तुको बंधका कारणत्व मानने में अनैकांतिक हेत्वाभासत्व है-व्यभिचार आता है। (इसप्रकार निश्चयसे बाह्यवस्तुको बंधका कारणत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता।) इसलिये बाह्यवस्तु जो कि जीवको अतद्भावरूप है वह बंधका कारण नहीं है; किन्तु अध्यवसान जो कि जीवको तद्भावरूप है वही बंधका कारण है। भावार्थ:-बंधका कारण निश्चयसे अध्यवसान ही है; और जो बाह्यवस्तुएं हैं वे अध्यवसानका आलंबन है-उनको अवलंबन कर अध्यवसान उत्पन्न होता है, इसलिये उन्हें अध्यवसानका कारण कहा जाता है। बाह्यवस्तु के बिना निराश्रयतया अध्यवसान उत्पन्न नहीं होते इसलिये बाह्यवस्तुओंका त्याग कराया जाता है। यदि बाह्यवस्तुओंको बंधका कारण कहा जाये तो उसमें व्यभिचार ( दोष) आता है। ( कारण होने पर भी कहीं कार्य दिखाई देता है और कहीं नहीं दिखाई देता उसे व्यभिचार कहते हैं और ऐसे कारणको व्यभिचारी-अनैकांतिक-कारणाभास कहते हैं।) कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नसे गमन करते हों और उनके पैर के नीचे उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनिको उसकी हिंसा नहीं लगती। यहाँ यदि बाह्य दृष्टिसे देखा जाये तो हिंसा हुई है परंतु मुनिके हिंसाका अध्यवसाय नहीं होनेसे उन्हें बन्ध नहीं होता। जैसे पैर के नीचे आकर मर जानेवाला जीव मुनिके बंधका कारण नहीं है उसीप्रकार अन्य बाह्यवस्तुओं के संबंध में भी समझना चाहिये। इसप्रकार बाह्यवस्तुको बंधका कारण माननेमें व्यभिचार आता है इसलिये बाह्यवस्तु बंधका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ। और बाह्यवस्तु बिना निराश्रयसे अध्यवसान नहीं होता, इसलिये बाह्यवस्तुका निषेध भी है ही। इसप्रकार बंधके कारणरूपसे निश्चित किया गया अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला न होनेसे मिथ्या है-यह अब बतलाते हैं: करता दुखी-सुखी जीवको, अरु बद्ध-मुक्त करूँ अरे! ये मूढ मति तुझ है निरर्थक, इस हि से मिथ्या ही है ।। २६६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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