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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार (मन्दाक्रान्ता) रुन्धन बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्गैः प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन। सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरज विगाह्य ।। १६२ ।। अब, निर्जराके यथार्थ स्वरूपको जानने वाले और कर्मोंके नवीन बंधको रोककर निर्जरा करनेवाले जो सम्यग्दृष्टिकी महिमा करके निर्जरा अधिकार पूर्ण करते हैं: श्लोकार्थ:- [इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बंधको रोकता हुआ और [ निजैः अष्टाभिः अङ्गैः सङ्गतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्रारबद्धं तु क्षयम् उपनयन्] ( स्वयं) अपने आठ अंगोंसे युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोका नाश करता हुआ [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे ( निजरसमें मस्त हुआ) [ आदि-मध्य-अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक, एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रङ्गं विगाह्य ] आकाशके विस्ताररूपी रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [ नटति ] नृत्य करता है। भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बंध नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वमें बंधका नाश होता है। इसलिये वह धारावाही ज्ञानरूपी रसका पान करके, निर्मल आकाशरूपी रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमि में नाचता है। प्रश्न:- आप यह कह चुके हैं कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बंध नहीं होता किन्तु सिद्धांतमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके बंध कहा गया है। और घातीकर्मोंका कार्य आत्माके गुणोंका घात करना है इसलिये दर्शन, ज्ञान, सुख , वीर्य-इन गुणोंका घात भी विघमान है। चारित्रमोहका उदय नवीन बंध भी करता है। यदि मोहके उदयमें भी बंध न माना जाये तो यह भी क्यों नहीं मान लिया जाये कि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वअनंतानुबंधीका उदय होने पर भी बंध नहीं होता ? समाधान:- बंधके होनेमें मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीका उदय ही है; और सम्यग्दृष्टिके तो उनके उदयका अभाव है। चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि सुखगुणका घात होता है तथा मिथ्यात्वअनंतानुबंधीके अतिरिक्त और उनके साथ रहनेवाली अन्य प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थितिअनुभागवाला बंध तथा शेष अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बंध होता है, तथापि जैसे मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित होता है वैसा नहीं होता। अनंत संसारका कारण तो Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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