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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार ३५९ यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव। (ज्ञानरूपी रथके चालनेके मार्गमें) [ भ्रमति ] भ्रमण करता है, [सः] वह [ जिनज्ञानप्रभावी] जिनेन्द्रभगवानके ज्ञानकी प्रभावना करनेवाला [सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये। टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण ज्ञानकी समस्त शक्तिको प्रगट करने-विकसित-फैलनेके द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है इसलिये, प्रभावना करनेवाला है, अत: उसे ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे (ज्ञानकी प्रभावना न बढ़ानेसे ) होनेवाला बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है। भावार्थ:-प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना इत्यादि; इसलिये जो अपने ज्ञानको निरंतर अभ्याससे प्रगट करता है-बढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है। उसके अप्रभावनाकृत कर्मबंध नहीं होता, कर्म रस देकर खिर जाता है इसलिये उसके निर्जरा ही है। इस गाथामें निश्चयप्रभावनाका स्वरूप कहा है। जैसे जिनबिंबको रथारूढ़ करके नगर, वन इत्यादिमें फिराकर व्यवहारप्रभावना की जाती है, इसीप्रकार जो विद्यारूपी (ज्ञानरूपी) रथमें आत्माको विराजमान करके मनरूपी (ज्ञानरूपी) मार्गमें भ्रमण करता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है, वह निश्चयप्रभावना करनेवाला है। इसप्रकार ऊपरकी गाथाओंमें यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको निःशंकित आदि आठ गुण निर्जराके कारण हैं। इसीप्रकार सम्यक्त्वके अन्य गुण भी निर्जराके कारण जानना चाहिये। इस ग्रंथमें निश्चयनयप्रधान कथन होनेसे यहाँ निःशंकितादि गुणोंका निश्चय स्वरूप (स्व-आश्रित स्वरूप) बताया गया है। उसका सारांश इसप्रकार है-जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान-श्रद्धानमें निःशंक हो, भयके निमित्तसे स्वरूपसे चलित न हो अथवा संदेहयुक्त न हो, उसके निःशंकितगुण होता है। १। जो कर्मफलकी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुके धर्मों के प्रति वांछा न करे, उसके निःकांक्षित गुण होता है। २। जो वस्तुके धर्मों के प्रति ग्लानि न करे, उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है। ३। जो स्वरूपमें मूढ़ न हो, स्वरूपको यथार्थ जाने, उसके अमूढदृष्टि गुण होते हैं। ४। जो आत्माको शुद्धस्वरूपमें युक्त करे, आत्माकी शक्ति बढ़ाये, और अन्य धर्मोको गौण करे, उसके उपगूहन गुण होता है। ५। जो स्वरूपसे च्युत होते हुए आत्माको स्वरूपमें स्थापित करे, उसके स्थितिकरण गुण होता है। ६। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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