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________________ ३५४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।। २३१ ।। यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषाभेव धर्माणाम्। स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ।। २३१ ।। यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्सा भावान्निर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बन्ध:, किन्तु निर्जरैव। भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको समस्त कर्मफलोंकी वांछा नहीं होती; तथा सर्व धर्मोकी वांछा नहीं होती, अर्थात् सुवर्णत्व, पाषाणत्व इत्यादि तथा निंदा, प्रशंसा आदिके वचन इत्यादि वस्तुधर्मोकी अर्थात् पुद्गलस्वभावोंकी उसे वांछा नहीं है- उनके प्रति समभाव है, अथवा अन्यमतावलम्बियोंके द्वारा माने गये अनेक प्रकारके सर्वथा एकांतपक्षी व्यवहारधर्मोंकी उसे वांछा नहीं है- उन धर्मोंका आदर नहीं है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टि वांछारहित होता है इसलिये उसे वांछासे होनेवाला बंध नहीं होता। वर्तमान वेदना सही नहीं जाती इसलिये उसे मिटानेके उपचारकी वांछा सम्यग्दृष्टिको चारित्रमोहके उदयके कारण होती है, किन्तु वह वांछाका कर्ता स्वयं नहीं होता, वह कर्मोदय समझकर उसका ज्ञाता ही रहता है, इसलिये उसे वांछाकृत बंध नहीं होता। अब निर्विचिकित्सा गुणकी गाथा कहते हैं: सब वस्तुधर्म विषै जुगुप्साभाव जो नहिं धारता । चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स वो सद्दृष्टि निश्चय जानना ।। २३१ ।। गाथार्थ:- [ यः चेतयिता ] जो चेतयिता [ सर्वेषाम् एव ] सभी [ धर्माणाम् ] धर्मों (वस्तुके स्वभावों) के प्रति [ जुगुप्सां ] जुगुप्सा ( ग्लानि ) [ न करोति ] नहीं करता [ सः] उसको [ खलु ] निश्चयसे [ निर्विचिकित्सः ] निर्विचिकित्स (विचिकित्सादोषसे रहित ) [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्य: ] जानना चाहिये । टीकाः-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी वस्तुधर्मोके प्रति जुगुप्साका अभाव होनेसे, निर्विचिकित्स ( जुगुप्सारहित-ग्लानिरहित है, इसलिये उसे विचिकित्साकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है । भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्मोंके प्रति ( अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावोंके प्रति तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंके प्रति ) जुगुप्सा नहीं करता । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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