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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३३६ इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेऽपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बन्धनिमित्ताः, यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः। यतरे बन्धनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः, यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः। अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः, नानाद्रव्यस्वभावत्वेनटकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रतिषेधात्। (स्वागता) ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयैति। रङ्गयुक्तिरकषायितवस्त्रेस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह।। १४८ ।। टीका:-इस लोकमें जो अध्यवसानके उदय हैं वे कितने ही तो संसार संबंधी हैं और कितने ही शरीर संबंधी हैं। उनमेंसे, जितने संसारसंबंधी हैं, उतने बंधके निमित्त हैं और जितने शरीरसंबंधी हैं उतने उपभोगके निमित्त हैं। जितने बंधके निमित्त हैं उतने तो रागद्वेषमोहादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। इन सभी में ज्ञानीके राग नहीं है; क्योंकि वे सभी नाना द्रव्योंके स्वभाव हैं इसलिये, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभाववाले ज्ञानीके उनका निषेध है। भावार्थ:-जो अध्यवसानके उदय संसार संबंधी हैं और बंधनके निमित्त हैं वे तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि हैं तथा जो अध्यवसानके उदय देह संबंधी हैं और उपभोगके निमित्त हैं वे सुख, दुःख इत्यादि हैं। वे सभी ( अध्यवसानके उदय), नाना द्रव्योंके ( अर्थात् पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य जो कि संयोगरूप हैं, उनके ) स्वभाव हैं; ज्ञानीका तो एक ज्ञायकस्वभाव है। इसलिये ज्ञानीके उनका निषेध है; अतः ज्ञानीको उनके प्रति राग या प्रीति नहीं है। परद्रव्य, परभाव संसारमें भ्रमणके कारण हैं; यदि उनके प्रति प्रीति करे तो ज्ञानी कैसा ? __ अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचनारूप श्लोक कहते श्लोकार्थ:- [इह अकषायितवस्त्रे ] जैसे लोध ओर फिटकरी इत्यादिसे जो कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्रमें [ रंगयुक्तिः] रंगका संयोग, [ अस्वीकृता] वस्त्रके द्वारा अंगीकार न किया जानेसे , [ बहिः एव हि लुठति ] ऊपर ही लौटता है( रह जाता है) वस्त्रके भीतर प्रवेश नहीं करता, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूपी रससे रहित है इसलिये उसे कर्म परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ:-जैसे लोध और फिटकरी इत्यादिके लगाये बिना वस्त्र में रंग नहीं चढ़ता उसीप्रकार रागभावके बिना ज्ञानीके कर्मोदयका भोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता। १४८। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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